गुरुवार, 15 अप्रैल 2010
आईने में दिखा खुरदरा चेहरा
घरेलू हिंसा ने फिर से अपने आप को पारिभाषित किया है। सिकुड़े हुए दायरे को उसने कुछ और बढ़ाया है। नई दिल्ली की एक अदालत में इसे लेकर सुनवाई चल रही थी। अदालत ने इस बार याद दिलाया है कि कि किसी महिला को प्रताडि़त करने की स्थिति में परिवार की महिला सदस्यों पर भी घरेलू हिंसा अधिनियम के तहत आरोप लगाया जा सकता है। इस बहस के चलते अदालती आदेश का महत्व और बढ़ जाता है कि महिलाओं के कल्याण के लिए लागू किया गया अधिनियम महिलाओं के खिलाफ भी इस्तेमाल किया जा सकता है या नहीं क्योंकि उच्च न्यायालयों ने इस मुद्दे पर परस्पर विरोधी विचार व्यक्त किए हैं। वह भी उस समय जब महिलाओं के खिलाफ बढ़ रहे घरेलू हिंसा के मामलों को देखते हुए एक संसदीय समिति ऐसी हिंसा से महिलाओं की सुरक्षा के लिए बनाए गए कानून के क्रियान्वयन के वास्ते निर्धारित नियमों की समीक्षा कर रही है। समिति ने इसके लिए विशेषज्ञों से भी राय मांगी है। भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की नेता नज्मा हेपतुल्ला के नेतृत्व वाली राज्यसभा की अधीनस्थ कानून समिति घरेलू हिंसा से महिलाओं की हिफाजत के लिए बने घरेलू हिंसा नियमों, 2006 की समीक्षा कर रही है। ये नियम महिलाओं की हिफाजत के लिए घरेलू हिंसा संरक्षण अधिनियम 2005 लागू करने के वास्ते बनाए गए थे। राज्यसभा सचिवालय से जारी एक अधिसूचना में कहा गया है, घरेलू हिंसा के बढ़ते मामलों और कानून में मौजूद खामियों का फायदा उठाकर बच रहे आरोपियों को देखते हुए इन नियमों की समीक्षा करना आवश्यक हो गया है। समिति ने संगठनों, संस्थाओं, व्यक्तिओं और विशेषज्ञों से इस मामले में सुझाव भी आमंत्रित किया है। अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश कामिनी लाउ ने घरेलू हिंसा अधिनियम-2005 में महिलाओं की रक्षा के प्रावधानों की व्याख्या करते हुए कहा कि कानून में यह प्रावधान है कि एक पत्नी अपने पति और संबंधियों के खिलाफ शिकायत कर सकती है जिसमें पुरुष और महिला, दोनों शामिल हैं। न्यायाधीश ने कहा कि अधिनियम की धारा-2 के खंड (क्यू)के अनुसार पीडि़त पत्नी या महिला जो शादी जैसे संबंधों में रह रही हो पति के रिश्तेदार या पुरुष साथी के खिलाफ शिकायत कर सकती है। प्रावधान के दायरे में महिला और पुरुष दोनों आते हैं। न्यायाधीश ने हालांकि यह उल्लेख भी किया कि विभिन्न उच्च न्यायालयों ने इस मुद्दे पर परस्पर विरोधी विचार व्यक्त किए हैं कि परिवार की महिला सदस्य घरेलू हिंसा अधिनियम के दायरे में आ सकती हैं या नहीं। अदालत ने कहा कि एक ऐसा दृष्टिकोण अपनाया जाना चाहिए जो सामंजस्यपूर्ण हो और अधिनियम के उद्देश्य को पूरा करता हो। एक उचित व्याख्या दिए जाने की जरूरत है ताकि सुनिश्चित हो सके कि अधिनियम के उद्देश्य की हार नहीं हुई है। इसने यह भी कहा कि हालांकि प्रावधान उल्लंघन के ऐसे मामले भी हो सकते हैं जिनमें परिवार के सभी सदस्यों को घसीट लिया जाए जिनका पति पत्नी के बीच वैवाहिक विवादों से कोई संबंध न हो। अदालत ने यह आदेश एक परिवार की कुछ महिला सदस्यों की समीक्षा याचिका को खारिज करते हुए दिया जिन्होंने मेट्रोपालिटन मजिस्ट्रेट के आदेश को चुनौती दी थी। मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट ने घरेलू हिंसा अधिनियम के तहत दर्ज इन महिला सदस्यों के नाम मामले से हटाने से इनकार कर दिया था। बताने की जरूरत नहीं कि घरेलू हिंसा वर्तमान भारतीय समाज का आईना है तो घरेलू हिंसा कानून महिलाओं के उन मौलिक अधिकारों की रक्षा करता है, जो उन्हें संविधान द्वारा प्रदान किए गए हैं। इसके तहत घर के अंदर होने वाली शारीरिक, मानसिक, आर्थिक, यौन संबंधी आदि सभी तरह की हिंसा शामिल है। इसमें सिर्फ शादीशुदा महिलाओं के अधिकारों की रक्षा की ही बात नहीं की गई है, बल्कि लिव-इन रिलेशन में रहने वाली महिलाएं और घर में रहने वाली अन्य महिला सदस्य जैसे बहन या मां आदि भी अपने अधिकारों की रक्षा के लिए इसका उपयोग कर सकती हैं। यह कानून पुरुषों को अपनी पत्नी पर नौकरी करने या छोडऩे के लिए जोर-जबरदस्ती करने पर भी रोक लगाता है। इस कानून में शारीरिक हिंसा के अंतर्गत थप्पड़ मारने से लेकर धक्का देने तक को शामिल किया गया है। वहीं, सेक्सुअल हिंसा में जबरदस्ती शारीरिक संबंध बनाने से लेकर पत्नी को पोर्नोग्राफी देखने के लिए विवश करना और बाल यौन शोषण भी शामिल है। यह कानून ऐसे पुरुषों पर भी शिकंजा कसता है, जो महिलाओं के साथ गाली-गलौज करते हैं। देखा जाए तो भारतीय समाज का सामंती ढांचा व शक्ति का असंतुलन घरेलू हिंसा की जड़ है। इस माहौल में कानून बनाने पर शोषण की प्रवृत्ति बढ़ती ही है। वहीं समाजीकरण की प्रक्रिया में गतिरोध इसके निदान में बाधक है। ऐसे में केवल कोई कानून महिलाओं को अधिकार नहीं दिला सकता है। समझना होगा कि किसी अधिनियम की सफलता समाज से प्रभावी होती है। इसके लिए विधि व समाज के अविन्यासित संबंधों पर विचार करना होगा। महिलाओं को संस्कार व देवी की चाकी में पिसने की बजाय अधिकार के लिए सजग होना होगा। यह सच है कि घरेलू हिंसा कानून की परिभाषा बहुआयामी है लेकिन इसमें विरोधाभास भी है। देश में सामाजिक वातावरण ही ऐसा है कि महिलाएं बात को घर से बाहर तो दूर मायके तक भी नहीं जाने देना चाहती हैं। ऐसे में पास-पड़ोस व समाज के लोगों को जागृत होकर आगे आना होगा। वहीं उत्पीडऩ करने वालों का जब तक समाज बहिष्कार नहीं करेगा कानून कुछ नहीं कर सकता।
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