गुरुवार, 29 अप्रैल 2010

बुद्धिजीवी दिखना भी एक चस्का

बुद्धिजीवी दिखना भी एक शौक है! यह कोई नया नहीं, बल्कि पुराना शौक है या यूं कहिए कि अब आउटडेटेड हो चला है। कारण कि अब कथित बुद्धिजीवियों की कोई साख नहीं रही समाज में- एक ढूंढ़ो, हजार मिलते हैं, मतलब कौड़ी के तीन! इधर कुछ लोग बुद्धिजीवी बनने में मशगूल रहे और उधर बिना बुद्धिजीवी बने/दिखे ही भाइयों ने अट्टालिकाएं खड़ी कर लीं, अकूत धन-वैभव जुटा लिया ...बुद्धिजीवी बेचारा कंधे पर झोला टांगे पैरों में चमरौधा पनही पहने एक उम्र पार कर गया और कहीं किसी अनजान से कोने में कुत्ते से भी बदतर स्थिति में दम तोड़ गया। दया आती रही है ऐसे बुद्धिजीवियों पर, बेचारों को न खुदा ही मिला न विसाले सनम... कुछ ऐसे ही दोस्त आज भी मिलते हैं तो नजरे चुराकर चुपके से फूट लेना चाहते हैं । जीवन कई कड़वी सच्चाइयों पर टिका हुआ है। यहां थोथे आदर्श के लिए जगह नहीं बन पाई है । एक बात और, वह है- बुद्धिजीवी होने और दिखने में भी बड़ा अंतर है- यहां भी वही द्वैत है- कुछ दिखते हैं मगर होते नहीं और कुछ होते हैं मगर दिखते नहीं... मगर उन लोगों की स्थिति शायद सबसे दयनीय है जो होते तो बिल्कुल नहीं, मगर दिखाना और चाहते हैं- वैसे तो यह बस गदह-पचीसी तक ही अमूमन दिखता है- हां, यह बात दीगर है कि कुछ लोग कालचक्र (क्रोनोलॉजी ) को धता बताकर अधिक उम्र के होने पर भी अपनी गदह-पचीसी बनाए रखते हैं। ब्लॉगजगत में ऐसे कई नौसिखिया बुद्धिजीवी दिख रहे हैं । वैसे भी अब बुद्धिजीवी का वह आकर्षण नहीं रहा। दूर की बात नहीं, अपने थिंक टैंक कहे जाने वाले गोविंदाचार्य जी की हालत देखिए- एक निर्वासित जिंदगी जी रहे हैं, जबकि वे असली वाले/ सचमुच के बुद्धिजीवी हैं। इस पर भी कोई पूछ नहीं है उनकी तो आप किस खेत के मूली हैं। ब्लॉगजगत में कई देवियों-सज्जनों को बुद्धिजीवी दिखने का शौक चढ़ा हुआ है।

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