गुरुवार, 15 अप्रैल 2010
आत्मविश्वास में अति भी ठीक नहीं
बिहार के बारे में बनी हर अवधारणाएं झूठी लगती है। सचमुच करिश्मा हो गया। बिहार में अब वह चुंबकीय आकर्षण पैदा हो गया है जो न सिर्फ बिहारियों व देशवासियों को बल्कि सात समदर पार के भी लोगों को खींचने लगा है। अब यहाँ के वातावरण में सौंदर्य है। विकास के हर पैमाने उध्र्वमुखी हो गए हैं। कारण आधारभूत ढाँचा दुरूस्त हुआ, एक निर्भय वातावरण बना, निवेश का अलख जगाया गया आदि-आदि। ये सारी बातें सपनों की नहीं, एक शिल्पकार की मेहनत का नतीजा है। वह भी उस दौर की कहानी है, जब धारा सिर्फ और सिर्फ प्रतिकूल ही थी और गजब ढा रही थी। बावजूद इसके उस शिल्पकार की आकांक्षाओं पर बिहार अभी खरा नहीं उतरा है। यह उस शिलपकार की महानता नहीं तो और क्या है? बिहार के मुख्यमंत्री की तारीफ अब उनके विरोधी भी अनायास ही करने लगे हैं। लेकिन खुद नीतिश अपने कार्यकाल के दौरान किये गये कार्यों का लेखा-जोखा लेंगे। उन्होंने जनता के नाम संदेश में कह दिया है कि विकास कार्यों की समीक्षा के दौरान काम से संतुष्ट होने पर ही चुनाव में जनता के बीच वोट मांगने जायेंगे। काम से संतुष्ट नहीं हुए तो सार्वजनिक रूप से जनता से माफी मांगेंगे। एक, अणे मार्ग में लगा जनता दरबार। पत्रकारों ने उन्हें साढ़े चार साल पूर्व सरकार गठन के बाद की गई उनकी उस घोषणा का स्मरण दिलाया जिसमें उन्होंने कहा था कि 'जनता ने पांच साल का मौका दिया है अगर इस दौरान जनता की उम्मीदों पर खरा नहीं उतरेंगे तो दोबारा वोट मांगने नहीं जायेंगे। काम से संतुष्ट नहीं हुए तो जनता से माफी मांगेंगे।Ó इस पर उन्होंने कहा कि उन्हें वह घोषणा आज भी याद है। उस घोषणा के आधार पर ही वे विश्वास यात्रा पर जायेंगे और विकास कार्यों की खुद समीक्षा करेंगे। इसका मतलब है कि इस बार बिहार में सरकार के काम-काज के आधार कर चुनाव होंगे। अच्छी बात है। कोई भी तो है जो डंके की चोट पर कहता है कि यह हम नहीं कह रहे, हमरा काम कह रहा है। सभी राजनीतिक दल के लोगों को और राजनेताओं को सोचना पड़ेगा कि जनता के बीच जाने के लिए वे कौन-कौन से तर्क गढ़ते चले जा रहे हैं। नेताओं के प्रति घृणा पैदा होने के भी संभवत: यही कारण हैं। तभी तो कहा जाता है कि नेता और नेता के वादे दोनों पर ही भरोसा बेमानी है, खासकर आज के दौर में। द्वंद्व जैसी स्थिति है । जिसके लिए जान देते हैं वोट देते हैं, वही मुंह फेर लेता है। आजादी के बाद पहले मुख्यमंत्री श्रीकृष्ण सिंह बिहार में बरौनी, सिंदरी, डीवीसी के रूप में कल-कारखाने दिये लेकिन इसके बाद उनकी टक्कर का कोई मुख्यमंत्री ही नहीं हुआ। फिर लाठी-लठैत की राजनीति होने लगी और बिहार पीछे जाने लगा। बिजली, सड़क, शिक्षा और रोजगार जैसे विषय नेताओं के एजेंडे से गायब हो गये। असली और नकली छवियां आपस में टकराती रहीं। पिछले ढाई-तीन दशकों के दौरान बिहार में भ्रष्टाचार, राजनीतिक उथल-पुथल और हिंसक वारदातों में ज्यादा बढ़ोतरी हुई या यों कहें कि मीडिया में ये चीजें प्रमुखता से दिखाई देने लगीं। लेकिन अब बिहार में बहुत कुछ बदला है। पहले बिहारी कहने पर दूसरे राज्य के लोग लोग मुंह बिचकाते थे लेकिन अब गौर करते हैं। मगर एक जहर बुझा तीर नीतिश को आहत कर सकता है। एक हालिया सर्वेक्षण के मुताबिक उनकी सरकार ने राज्य में खर्च हुई विकास राशि का 44 फीसदी हिस्सा अकेले राजधानी पटना में ही खर्च कर डाला है। यह आंकड़ा निश्चित तौर पर उनके विरोधियों के लिए भी संजीवनी साबित होने वाला है जो अब केंद्रीय सांख्यिकी संगठन के उस आंकड़े से सहमे हुए थे, जिसके मुताबिक राज्य ने उनके शासनकाल में 11.3 फीसदी की वृद्धि दर हासिल करने में कामयाबी हासिल की थी। तो क्या वे ठीक कहते हैं दरअसल नीतीश पटना को चमकाकर रखना चाहते हैं ताकि बाहर से आने वाला हर व्यक्ति यह राय ले कर लौटे कि बिहार में सचमुच विकास हो रहा है। जबकि राजधानी से बाहर कैसा विकास हो रहा है, उसकी गवाही तो ये आंकड़े दे ही रहे हैं। ऐसे में केंद्रीय सांख्यिकी संगठन के 11.3 प्रतिशत वृद्धि दर वाले आंकड़े के सहारे चुनाव जीतने को आश्वस्त दिख रहे नीतीश के गले कहीं यह दूसरा आंकड़ा न पड़ जाए इस बात की आशंका बलवती होने लगी है। 2009-10 के लिए हुए स्टेट इकानामिक सर्वे के मुताबिक अब तक केंद्र सरकार पर उपेक्षा का आरोप लगाने वाले बिहार में आंतरिक स्तर पर क्षेत्रीय असमानता की स्थिति कहीं अधिक गंभीर है। माना नीतिश अपनी आलोचनाओं से बेफिक्र रहने वाले शख्स हैं, लेकिन जब झूठ और सच की घूंटी लगातार पिलाई जाती रहे , तो विश्वास का डगमगाना भी तय है। अनुकरणीय कदमों की छाप तब धूमिल होती जाती है और फिर हाथ मलते वही रह जाता है जो अति विश्वास से लबरेज होता है। लालू प्रसाद यादव चोट खाए सांप की तरह दूर से ही फुंकार रहे हैं। राम विलास पासवान साथ में राम-लखन की भूमिका अदा कर रहे हैं। कांग्रेस अपनी राह दुरूस्त करने में लगी है। वामपंथियों की कदमताल पहले से ही बिगड़ी हुई है। इतनी भ्रांतियों में मौन -मुस्कराहट दम तोड़ सकती है। यह तो रानजनीति का खोल है, पता नहीं कब कौन पास, कब कौन फेल।
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