मंगलवार, 20 अप्रैल 2010

थम गया अभियान , नक्सली गायब

एशिया के सबसे बड़े जंगलों में शुमार किए जाने वाले सारंडा जंगल में 3 दिनों तक चले पुलिस के विशेष अभियान को विराम दे दिया गया है। दंतेवाड़ा की घटना के तुरंत बाद झारखंड में नक्सलियों के गढ़ सारंडा के घने जंगलों में पुलिस का घुसना बड़ी चुनौती मानी जा रही थी, किन्तु तीन दिनों तक जंगल का चप्पा-चप्पा छान मारने के बाद भी पुलिस का नक्सलियों ने कहीं मुकाबला नहीं हुआ। हालांकि इस दौरान चार लैंडमाइन को निष्क्रिय किया गया। झारखंड में नक्सलियों के लिए सबसे सुरक्षित समझे जाने वाले इस जंगल में उग्रवादियों की अनुपस्थिति ने कई सवाल खड़े कर दिए हैं। या तो नक्सली कहीं भी पुलिस पर हमला करने का साहस नहीं कर सके, जिसकी संभावना ज्यादा या फिर उन्होंने पुलिस को चकमा दे दिया। अभियान के दौरान पुलिस ने उन क्षेत्रों को रौंद डाला जहां पहले कभी पुलिस नहीं जा सकी थी और जहां हमेशा ही नक्सली प्रशिक्षण प्राप्त करने के लिए जमे रहते थे। इस दौरान पुलिस ने नक्सलियों के पुराने स्थायी कैंप को जरूर ध्वस्त किया। साथ ही पुलिस को फांसने के लिए लगाए गए लैंडमाइंस को भी विस्फोट करके समाप्त कर दिया। सारंडा आपरेशन में 22 कंपनी सीआरपीएफ को लगाया गया था। जो पूरे साजो समान के साथ जंगल गए थे। खुफिया विभाग की यह सूचना भी है कि सारंडा के नक्सली भी गोईलकेरा की ओर जमे हैं। वे बड़ी नक्सली घटना को अंजाम देने की फिराक में हैं। खुफिया सूचना के बाद पुलिस सतर्क है, ताकि नक्सलियों को उनके मंसूबे में सफल न होने दिया जा सके। दंतेवाड़ा की घटना ने ठहरे हुए पानी में पत्थर फेंक हलचल मचा दी है। इस नरसंहार और उसके बाद उठे चीत्कार के दृश्यों ने नक्सली आंदोलन के वैचारिक समर्थकों को भी सोचने के लिए मजबूर कर दिया है कि आखिर किस लिए इतना खून बहाया गया। नक्सली नेता अपनी पीठ थपथपाते हुए ये जरूर कह रहे हैं कि उन्होंने सरकार के आपरेशन ग्रीन हंट का जवाब दिया है। वे धमकी देते हुए नहीं हिचक रहे हैं कि अगर सरकार का रवैया नहीं बदला तो वे शहरी ठिकानों पर भी हमला करेंगे। ऐसी धमकी देते वक्त ये भूल जाते हैं कि अगर अति उत्साह में उन्होंने ऐसा किया भी तो इसके नतीजे उनके लिए ही बुरे होंगे। क्योंकि वैचारिक समाज से उनका समर्थन छीजते देर नहीं लगेगी। याद कीजिए पंजाब को। पंजाब में खालिस्तान आतंकवाद तभी तक पनपता रहा, जब तक उसे आम लोगों की सहानुभूति हासिल रही। लेकिन जैसे ही उन्होंने आम जनता का नाहक खून बहाना शुरू किया, वे सामाजिक मुख्यधारा से अलग-थलग पड़ते गए और तब के पंजाब पुलिस के प्रमुख केपीएस गिल के लिए उनका सफाया करना आसान हो गया। नक्सली आंदोलन के इतिहास में छह अप्रैल की घटना नक्सलियों के लिए कुछ इसी तरह उभरकर सामने आई है। इस एक हमले से उनसे जनता का भरोसा उठना शुरू हो गया है। अगर ऐसी दो-चार घटनाएं और करने में वे कामयाब रहे तो निश्चित तौर पर सरकारी मशीनरी के लिए उनके सफाए का राह अधिक आसान होगी। नक्सलियों पर भी आरोप है कि वे अपने प्रभाव वाले क्षेत्रों में समानांतर अर्थव्यवस्था चला रहे हैं। जो उद्योगपति और व्यापारी उन्हें लेवी नहीं देता, उसे वे दंडित करते हैं। जाहिर है कि बंदूक की राह से क्रांति का सपना देखने वाले लोगों के हाथ दूध के धुले नहीं हैं। वामपंथी राजनीति और सशस्त्र क्रांति के पैरोकार भगत सिंह और राजगुरू भी रहे हैं। लेकिन जब भी उन्होंने गोली चलाने की जरूरत महसूस की, तब उन्होंने इस बात का जरूर ध्यान रखा कि उनकी गोली किसी बेगुनाह का खून बहाने की वजह नहीं बने। दंतेवाड़ा में पुलिस वालों का जो खून बहाया गया है, देश ने उसे बेगुनाहों के रक्त बहाने के तौर पर ही देखा है। चाहे अपराधी हों या सशस्त्र क्रांति के रोमानी पैरोकार, जब भी वे बेगुनाहों का खून बहाते हैं, दरअसल अराजकता को ही प्रतिस्थापित कर रहे होते हैं। लेकिन ये बात अदना सा समझदार भी मानता है कि क्रांतियां अराजकता के जरिए नहीं होतीं। इसके लिए जनता का भरोसा जीतना होता है। लेकिन दुर्भाग्य ये कि आदर्शवादिता के सहारे नक्सलवाद के नाम पर बराबरी का लक्ष्य हासिल करने का सपना दिखाने वाले यह लोग ऐसा नहीं कर रहे हैं। उनके लिए बेगुनाहों का खून बहाना ही लक्ष्य हासिल करने में मददगार नजर आ रहा है। यह भी सच है कि खून बहाकर कुछ लोगों का समर्थन जरूर हासिल किया जा सकता है, लेकिन व्यापक जनसमुदाय की सहानुभूति नहीं पाई जा सकती। हमारे नक्सली रहनुमा जितनी जल्दी इसे समझ लें, देश के लिए ठीक होगा। समझना आवाम को भी है। इसलिए समझना बेहद जरूरी है कि हर कोहराम पर हम दशकों पीछे ठेल दिए जाते हैं। यह विडंबना नहीं तो और क्या है। समाज खुद भस्मासुर तैयार करता है और जब भस्मासुर उसे मारने दौड़ता है तो सरहदों की सुरक्षा में लगे जवानों को गलियों तक खींच लाया जाता है। बेहतर हो भस्मासुर आबाद न हों, उससे भी बेहतर होगा कि समाज अंगुलिमालों की पौध को पनपने ही न दे। विश्वास मानें हिंदुस्तान कभी लहूलुहान नहीं होगा।

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