मंगलवार, 20 अप्रैल 2010

सड़कों पर न लाओ यूं निगहबानों को

नक्सलियों ने फिर दी है चुनौती। आतंकी हमलों का अंदेशा बरकरार है। जवानों को मुश्तैद रहने के लिए कह दिया गया है। लेकिन कुछ बातें हैं। ये वैसे तथ्य हैं, जिनका सीधा सरोकार तो जवानों से है, मगर आवाम भी उसमें कहीं न कहीं शामिल है। दंतेवाड़ा जैसे खूंखार नक्सलीगढ़ में दोषपूर्ण योजना और घात लगाकर बैठे माओवादियों के औचक हमले के शिकार 75 सीआरपीएफ जवानों की जान गंवाने के बाद उनके प्रशिक्षण और आधुनिक साजो-सामान की किल्लत जैसे मुद्दों पर देशव्यापी बहस फिर से छिड़ी हुई है। यह बात भी बड़े पैमाने पर सामने आ रही है कि नई पीढ़ी के अधिकारी जवानों के साथ आए दिन बदसलूकी कर रहे हैं और अपमानित जवान तनाव और पेट की बीमारियों से ग्रस्त हो रहे हैं। जवानों के साथ अफसरों ती बद्तमीजी बीएसएफ में सबसे ज्यादा आंकी गई है। कई खबरों को अगर सच मान लें तो प्रशिक्षण प्राप्त जवानों को बड़े पैमाने पर आला अधिकारियों के घरों की डय़ूटी पर लगाया गया है। बल की विभिन्न बटालियनों के अंदरूनी सूत्रों का कहना है कि करीब 22 हजार जवानों को असली डय़ूटी पर तैनाती के बजाय अफसरों के घरों पर खाना बनाने, उनके बीबी-बच्चों के कपड़े धोने, जूते पालिश कराने और उनके कुत्ते घुमाने जैसे कामों में लगा दिया जाता है। अधिकारियों के भ्रष्टाचार के किस्सों से पैरा मिलिटरी में हर स्तर पर कुंठा व निराशा का माहौल छाया है। नक्सल आतंकवाद, सीमा पार से घुसपैठ और इस्लामी आतंकवादियों से लोहा लेने देश के कई हिस्सों में अलगाववादियों की गतिविधियों पर काबू पाने जैसी बड़ी चुनौतियां सुरक्षा बलों पर हैं। खुद सरकार के आंतरिक सूत्र बयान करते हैं कि जवानों पर विषम स्थितियों में डय़ूटी का जर्बदस्त दबाव है। बटालियनों की संख्या में इजाफे के बावजूद जवानों की दुश्वारियों में कमी नहीं आई है। विशेषज्ञों का कहना है कि लगातार काम के तनाव और अस्थिर जीवनशैली से उनमें फिटनेस का उत्तरोत्तर ह्रास होता है। अब तो सुरक्षा बलों में मानसिक तनाव पर भी शोध शुरू हो गया है। बीएसएफ के जवानों की ड्यूटी काफी दुर्गम स्थानों पर रहती है। बार-बार एक ही तरह की ड्यूटी से जवान तनाव के शिकार तो होते ही हैं,संचार साधनों के बढऩे से भी उनमें तनाव जन्य घटनाएं भी बढ़ी हैं। विशेषज्ञ इसका प्रमुख कारण जवान द्वारा संचार साधनों के माध्यम से हर पल अपने गांव, परिवार की परिस्थितियों एवं घटनाओं से अवगत होते रहना बताते हैं। इससे जवानों पर मनोवैज्ञानिक दबाव पड़ता है और वे तनाव का शिकार हो जाते हैं। इसी संदर्भ में अब बीएसएफ में विशेष अध्ययन एवं शोध का कार्य किया जा रहा है। माना जा रहा है कि अंतरराष्ट्रीय सीमाओं के नजदीकी क्षेत्रों में आधुनिक संचार सुविधाओं की वृद्धि सुरक्षाबलों में मानसिक तनाव बढऩे का प्रमुख कारण बनती जा रही है। इसके अलावा जवानों के प्रशिक्षण से जुड़े रहे एक विशेषज्ञ ने स्वीकार किया कि बदलते वक्त की रफ्तार और नई चुनौतियों के लिहाज से प्रशिक्षण सुविधाएं नाकाफी हैं यानी 20 वर्ष पहले आंतक, घुसपैठ या नक्सली इलाकों में काम करने का जो ज्ञान व ट्रेनिंग उन्हें मिले थे, उसी से वे काम चला रहे हैं, जबकि जेहादी, नक्सली और देश के कई भागों में सक्रिय आतंकवादी आक्रामक क्षमताओं व आधुनिक विदेशी हथियारों का इस्तेमाल में काफी पेशेवर तरीके से अभ्यस्त हैं। दूसरी तरफ हर आतंकवादी वारदात के बाद मरने वालों की दर्दनाक कहानियां सामने आती हैं। इसके साथ ही जब भी इस तरह की घटनाएं घटती हैं तो सुरक्षा बलों की क्षमता और योग्यता पर तमाम सवालिया निशान लगा दिए जाते हैं। यह थोड़ा सा अनुचित है क्योंकि हर स्टेशन, हर ढाबे, हर संवेदनशील स्थान पर पैनी निगाह रखना संभव ही नहीं है। देखा जाए तो देश में आए दिन संकट की घड़ी आ ही जाती है। बर्दाश्त करने की सीमा सिकुड़ चुकी है, इसलिए फौरन ही जवानों के नाम फरमान जारी कर दिया जाता है। मगर जवानों के दर्द को सुनने की किसी को फुरसत ही नहीं। हालांकि गृह मंत्री पी चिदंबरम ने इस बार कहा है कि अर्धसैनिक बलों और पुलिस की जरूरतों के लिए मौजूदा वित्त वर्ष में 40 हजार करोड़ रुपए का प्रावधान किया जाएगा। बेशक खुशखबर है। आतंकवादी, विभाजनकारी ताकतें और नक्सली गरीबों और खासकर आदिवासियों को अपने जाल में फंसाकर चोरी छिपे हिंसा फैलाने में जुटे हैं। इन तत्वों से निबटने के लिए ऐसा आवंटन बिल्कुल जरूरी है। मगर इससे भी ज्यादा जरूरी है कि हर मौके की नजाकत को समझा जाए और नाजुक परिस्थितियों में ही निगहबानों को याद किया जाए। सत्ता के बदलते गणित व राजनेताओं की कुटिल चाल तथा वोट बैंक की राजनीति और भ्रष्टाचार ने जवानों के हाथ बांध रखें हैं। जब पानी सर से ऊपर बहने लगता है तो कातर स्वर में आर्तनाद सुनाई देने लगती है। क्या इससे चेत जाने की सीख नहीं मिलती। समाज में तेजी से फल-फूल रहे असमाजिक तत्वों की बिषबेल को जड़-समूल समाज ही उखाड़ कर फेंक सकता है। नक्सलियों के खिलाफ वायु सेना के इस्तेमाल की बात को लेकर हायतोबा मची थी। नक्सलियों के सफाए के बाद क्या नक्सलवाद भी मर जाएगा? यह कुंठा है जो बरसों से समाज द्वारा ही सिंचित किया जाता रहा है। विडंबना तो यही है कि समाज खुद भस्मासुर तैयार करता है और जब भस्मासुर उसे मारने दौड़ता है तो सरहदों की सुरक्षा में लगे जवानों को गलियों तक खींच लाया जाता है। बेहतर हो भस्मासुर आबाद न हों, उससे भी बेहतर होगा कि समाज अंगुलिमालों की पौध को पनपने ही न दे। विश्वास मानें हिंदुस्तान कभी लहूलुहान नहीं होगा।

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