शुक्रवार, 5 जुलाई 2013

पनाह मांगतीं धरोहरें

इतिहास की अजीम विरासतों को संजोने में हम कितने लापरवाह हैं, इसके एक-दो नहीं, कई उदाहरण नागपुर में देखने को मिल जाएंगे। संरक्षित धरोहरों के 'लापताÓ होने अथवा उनके अस्तित्व पर खतरा मंडराने का उल्लेख तो अक्सर होता तो है, लेकिन सिर्फ कागजों पर। गनीमत है वे महफूज हैं, जिनकी छतों के नीचे सरकारी दफ्तर हैं।  कोतवाली थाना, गांधी गेट, सुयोग, जीपीओ और डिवीजनल कमिश्नर ऑफिस- ये सभी इमारतें प्रदेश सरकार की ओर से घोषित धरोहरों (हेरिटेज) की श्रेणी में आती हैं। विभिन्न विभागों के दफ्तरों के रूप में इस्तेमाल होने से इनकी स्थिति अन्य जर्जर इमारतों जैसी नहीं है। सवाल यह है कि अन्य जर्जर धरोहरों के बारे में इस हद तक लापरवाही और उदासीनता क्यों? नियमों के मुताबिक धरोहरों के सौ मीटर के दायरे में किसी भी तरह के निर्माण-कार्य पर पाबंदी है। लेकिन ऐसे बहुतेरे मामले हैं, जिनमें शहरी विकास और जनहित के नाम पर वैसे निर्माणों की इजाजत धड़ल्ले से दे दी गई। अतिक्रमण से ऐतिहासिक महत्व की कई इमारतें बुरी तरह प्रभावित हैं या उनकी हालत लगातार खराब होती जा रही हैं। कुछ  अवैध कब्जे में हैं तो कुछ का स्वरुप ही बिगड़ गया है। बावजूद इसके  न तो पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग का उन पर ध्यान है और न ही राज्य सरकार का। हमारी विरासत, हमारी धरोहरें हमसे ही पनाह मांगने लगी हैं।
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कोतवाली थाना
1755 में बनी यह इमारत भोंसले राज परिवार की रानी बकाबाई के महल का हिस्सा हुआ करती थी। अंग्रेजों के जमाने में इस इमारत में भोंसले शासकों का दरबार लगा करता था, जहां अपराधियों को सजा सुनायी जाती थी।  पहरे पर कोतवाल हुआ करते थे, जिसके चलते इसका धीरे-धीरे कोतवाली पड़ गया। वर्ष 1937 में इस इमारत को राज्य पुलिस को एक रुपए के किराए पर दे दिया गया था। नागपुर उस समय मध्य प्रांत और बेरार की राजधानी हुआ करता था। आज की तारीख में इस इमारत के रख-रखाव का जिम्मा पुलिस महकमे पर है।
गांधी गेट
किसी जमाने में नागपुर शहर का मुख्य द्वार रहा यह दरवाजा आज शहर के बीच में आ चुका है। शुक्रवारी तलाब के निकट होने की वजह से रघुजीराव भोसले और जानोजीराव भोसले के शासनकाल में बने इस दरवाजे का नाम शुक्रवारी दरवाजा पड़ गया था।  1848 में अंग्रेजों और भोसले शासकों के बीच लड़ाई के दौरान अंग्रेजों ने तोप के कई गोले दागे, लेकिन दरवाजे को उड़ा नहीं पाए। वर्तमान में इसकी देखभाल पीडब्ल्यूडी विभाग के जिम्मे है। पीडब्ल्यूडी विभाग के सिद्धार्थ नंदेश्वर पिछले 30 साल से इस दरवाजे के रखरखाव के लिए यहां तैनात हैं।  स्कूल के बच्चों को प्राय: यहां घुमाने के लिए लाया जाता है। हर वर्ष 15 अगस्त और 26 जनवरी को इस दरवाजे पर झंडा वंदन होता है।
सुयोग
 सीपी एंड बेरार के विधायकों का होस्टल रहे इस इमारत में 80 कमरे हैं। आज इस इमारत के पहले तल पर फॉस्ट ट्रैक अदालत लगती है तो शीतकालीन सत्र के दौरान नीचे के 40 कमरों में पत्रकारों को ठहराया जाता है।
जनरल पोस्ट ऑफिस
1916 से 1921 के दौरान बनी विक्टोरियन शैली की यह इमारत देखते ही बनती है। साढ़े नौ एकड़ क्षेत्र में बनी  लाल ईंटों की यह इमारत 12 खंभों पर टिकी है। जीपीओ में उप-डाकपाल रिहाना सयैद बताती हैं कि इस इमारत की दीवारें इतनी मोटी हैं कि गर्मी का एहसास कम होता है।  सौ साल के करीब पहुंची इस इमारत की सुंदरता आज भी बरकरार है।
डिवीजनल कमिश्नर ऑफिस
सीपी एंड बेरार के गठन के मद्देनजर 8 नवंबर 1913 में मध्यप्रदेश विधान परिषद का गठन किया गया। इसी लिहाज से सचिवालय बनाने का कार्य शुरू किया गया।  सचिवालय का निर्माण 1910 से 1916 के दौरान हुआ।  डिवीजिनल कमिश्नर ऑफिस को पुराने सचिवालय के नाम से भी जाना जाता है। अष्टभुजी इस दो मंजिली इमारत को उस समय बनाने में 10,80022 की लागत आई थी। आज यहां डिवीजिनल कमिश्नर कार्यालय के अलावा 20 अन्य विभागों के भी कार्यालय हैं।
 अनेक वीरान
 राजा-महाराजाओं के महल हेरिटेज घोषित किए गए है। इनमें अनेक वीरान पड़े हैं। जहां वंशजों का निवास है, वे आबाद हैं। इस श्रेणी में राजा रघुजी भोंसले का सीनियर भोसला पैलेस माना जा सकता है। हेरिटेज इमारतों में सीनियर भोंसला पैलेस का शुमार है। वर्तमान में उनके वंशज राजे मुधोजी भोंसले सपरिवार यहां रहते हैं। हेरिटेज के दायरे में लेने के बाद भी रख-रखाव पर अनदेखी की जाती रही है।
हेरिटेज नियमों के अनुसार, इन इमारतों के पुराने शिल्प को छेड़ा नहीं जा सकता है। मगर समय के थपेड़े इन्हें आसक्त करते देखे जा रहे हैं। टूट-फूट होने पर भोंसले परिवार द्वारा मांगी गई मरम्मत की अनुमति बमुश्किल दी गई। सारी देख-रेख और व्यवस्था परिवार द्वारा की जाती है, जबकि इस हेरिटेज इमारत का नियमित टैक्स शासन द्वारा वसूला जा रहा है। राजे मुधोजी भोसले के अनुसार सीनियर भोंसला  पैलेस का निर्माण 1818 में किया गया था, जिसे अंग्रेजों ने जला दिया था। 1822-23 में इसका पुनर्निर्माण किया गया। क्षतिग्रस्त हिस्से को जोड़कर मौजूदा महल बनाया गया। मुधोजी ने बताया कि हेरिटेज इमारत का टैक्स हमसे ही लिया जाता है, जबकि इसके व्यवस्थापन की जिम्मेदारी शासन की है।
 गोंड राजा की बुलंद इमारतें
 'खंडहर बता रहे हैं, इमारत कभी बुलंद थीÓ का जुमला शत-प्रतिशत गोंड राजा की पुरानी इमारतों पर लागू होता है। स्वाधीन करने के बाद कभी इनके रंग-रोगन पर ध्यान नहीं दिया गया। वर्ष 1738 से पूर्व गोंड राजाओं का राज था। उस काल की इमारतों को राज्य शासन की सुरक्षा व्यवस्था कभी हासिल नहीं हुई। स्थिति इतनी बिगड़ी कि आज खंडहरों को देखकर भी नहीं लगता कि कभी वहां शासक निवास करते थे।
शब्दों तक सीमित किला
गोंड राजा का किला मात्र शब्दों तक सीमित रह गया है। आज सामान्य मकान के रूप में इसे देखा जाता है। 2003 के पूर्व शासन की उपेक्षा का शिकार बने गोंड किले की जर्जर अवस्था को देखते हुए हेरिटेज सूची से इसे निकाल दिया गया। गोंड राजा के वंशज राजे विरेंद्र शाह यहां परिवार के साथ रहते हैं। इनकी जागीर में आज भी गोंड दरवाजा (पत्थरफोड़ दरवाजा), पत्थर फोड़ मस्जिद, सक्करदरा स्थित कब्रिस्तान की गिनती होती है। समाधियों को कुछ लालची लोगों ने तोड़ दिया। जानकारी के अनुसार, यहां 35 प्राचीन समाधियां थीं।
 शुरू हुआ रघुजी का राज
 आभूषणों की लालच में इसे लोगों ने तोड़ दिया।  दो समाधियां सलामत हैं, जो क्रमश: बुरहान शाह और सुलेमान शाह की हैं। मनपा प्रशासन द्वारा गोंड राजा की तोप की मरम्मत तथा सीढिय़ों को बनाने का काम शुरू किया गया। गोंड किले के दरवाजे को सौंदर्यीकरण की सुची में रखकर मरम्मत की जा रही है। वर्ष 1702 में गोंड राजा बख्त बुलंद शाह ने इसे बनवाया था। 1709 में उनके निधन के बाद गोंड राजा चांद सुल्तान ने अनेक इमारतों का निर्माण किया जो आज खंडहर बन चुके हैं।  1735 में उनके निधन के बाद तख्त के लिए पारिवारिक कलह बढ़ गई। यहां तक कि राजकुंवर की जान चली गई। वर्ष 1735 में विधवा रानी रतन कुंवर ने तत्कालीन रघुजी राजा की मदद से पारिवारिक कलह को शांत किया। रानी रतन कुंवर ने रघुजी राजा को अपना बेटा मान लिया। रियासत के तीन हिस्सों में बुरहान शाह, सुलेमान शाह और राजा रघुजी हिस्सेदार बने। यहां से राजा रघुजी का राज शुरू हुआ। यह 1738 की बात है। उस समय की इमारतों में कुछ सलामत हैं।  
जिन पर नाज, उन्हीं पर गाज
नागपुर त्रिशताब्दी महोत्सव का गौरवशाली उत्सव प्रशासनिक और सार्वजनिक स्तर पर बड़े ही धूमधाम से मनाया गया। जिन ऐतिहासिक व वास्तुशाीय धरोहरों ने इस उपलब्धि तक शहर को पहुंचाया, वे धरोहरें खुद उपेक्षा का शिकार बनी हुई है। जिन इमारतों, स्थलों एवं स्मारको ने नए नगर को उंगली पकड़कर शहर कहलाने के पथ पर अग्रसर किया उन्हें ही रखरखाव के अभाव का दंश झेलना पड़ रहा है।
 भारत के राजपत्र में यह स्पष्ट उल्लेख है कि शहर के धरोहर और स्मारकों के संरक्षण के लिए अधिकारियों और जानकारों का 11 सदस्यीय दल होने चाहिए।  इस दल में राज्य के सेवानिवृत्त गृह सचिव, सेवानिवृत्त मनपा आयुक्त, सेवानिवृत्त नासुप्र सभापति अथवा नगर रचना विभाग के सेवानिवृत्त निदेशक हेरिटेज कंजर्वेशन कमेटी (विरासत संरक्षण समिति) के अध्यक्ष रहेंगे। अभियंता (संरचना, अनुभव-10 वर्ष) स्थापत्य कला के जानकार (अनुभव-10 वर्ष), नागपुर संग्रहालय के क्यूरेटर (संग्रहाध्यक्ष), शहर के इतिहासकार (अनुभव-10 वर्ष), राज्य सरकार की ओर से नामांकित व्यक्ति (उदा. सहायक निदेशक, नगर रचना विभाग), नासुप्र के सदस्य व नगर रचना विभाग के सहायक निदेशक आदि का समावेश है। विडंबना है कि न तो आज यह दल अपने सही रूप में है और न ही इसके लिए कोई कार्यालय उपलब्ध है। अस्थायी रुप से नगर रचना विभाग कार्यालय में इनके बैठने की व्यवस्था है।
 राजपत्र में स्पष्ट उल्लेख है कि शहर के ऐतिहासिक व वास्तुशाीय दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण, स्थलों एवं स्मारकों के संरक्षण का दायित्व प्रशासन, निजी इमारतों के मालिक आदि पर है। लेकिन हैरिटेज कंजर्वेशन कमेटी की पूर्व अध्यक्ष चिकला जुत्सी ने बताया कि संरक्षण और मरम्मत के लिए अब तक एक भी रुपए नहीं मिले हैं। जबकि वर्ष 2000 में जारी किए गए राजपत्र में यह स्पष्ट उल्लेख है कि मनपा बजट में इस कार्य हेतु निधि का प्रावधान रखा जाना चाहिए, लेकिन मनपा की ओर से ऐसा कोई प्रावधान या फिर कोई उपाय योजना नहीं।   चौंकानेवाली जानकारी स्वयं विरासत संरक्षण समिति की अध्यक्ष चित्कला जुत्सी ने देते हुए बताया कि मुंबई स्थित किसी अन्य संस्थान से मैं जुड़ गई हूं। फिलहाल उस समिति की सदस्य नहीं। अलबत्ता उन्होंने बताया कि संरक्षण के नाम पर उन्हें कोई पैसा नहीं दिया जाता।
 जिले में विरासत के रूप में कुल 155 स्थलों को चिन्हित किया गया है। पहले 138 स्थल रखे गए थे और 66 स्थलों को हटा दिया गया था। बाद में अदालत ने 17 स्थलों को और जोडऩे के आदेश दिए। हैरतअंगेज रुप से इतनी लम्बी सूची होने के बावजूद कोई संरक्षण व संयोजन के उपबंध नहीं। राजपत्र में उल्लेख है कि सूची बद्ध सभी स्थल नागरिकों के लिए खुले रहने चाहिए, लेकिन कुछ स्थलों में ऐसी सुविधा सहज उपलब्ध नहीं हो पाती। राजपत्र में स्पष्ट निर्देश है कि हेरिटेज कंजर्वेशन कमेटी के ग्यारह सदस्यों की हर साल अथवा अधिकतम 40 दिनों के अंतराल में एक बैठक होनी जरूरी है। बैठक में न्यूनतम 50 प्रतिशत सदस्यों की मौजूदगी अनिवार्य है, लेकिन सूत्रों से पता चला है कि ऐसे निर्देशों का पालन नहीं किया जाता। यही कारण है कि धरोहरों के संरक्षण और संयोजन पर चर्चा नहीं हो पाती।  दूसरी तरफ, नगर रचना विभाग ये दावा करता है कि समिति की बैठक नियमपूर्वक होती है। विरासत संरक्षण समिति के कार्य-निर्देशों को लेकर अन्य नियम यह भी है कि धरोहर स्थलों के आसपास ऊंची इमारतें या टावर नहीं बनाए जा सकते। साथ ही हेरिटेज आकृति के किसी भी अंग को क्षतिग्रस्त नहीं किया जा सकता। लेकिन गोंड राजाओं के कब्रगाह, भोसले राजाओं का राजघाट आदि की खस्ता हालत और क्षतिग्रस्त स्थितियों को देखकर समिति व अन्य जिम्मेदार प्रशासनिक कार्यालय की कार्यप्रणाली को साफ तौर से समझा जा सकता है। याद हो कि कुछ वर्षों पूर्व जीरो माइल स्थित माइल स्टोन स्मारक से लगकर पेट्रोल पम्प को इसलिए बंद किया गया, क्योंकि यहां शहीद स्मारक बनाया जाना था। तब से अब तक इस दिशा में कोई पहल देखने को नहीं मिली। राजपत्र में विरासत के संरक्षण के लिए मालिक, सहकारी संस्था, आवास मरम्मत मंडल व अन्य विरासत धारी संस्था मरम्मत की सूची मनपा, जिला नियोजन अन्य जिम्मेदार विभागों को देने का प्रावधान है। लेकिन इस ओर कोई पहल देखने नहीं मिलती। विरासतों व धरोहरों के संरक्षण के लिए धरोहर विकास कोष का प्रावधान है, जो 3 श्रेणियों में विभाक्त है।  पहली श्रेणी में उन धरोहरों का समावेश है जो राष्ट्रीय व ऐतिहासिक महत्व रखते हैं। इन्हें अत्याधिक संरक्षण योग्य समझा जाता है। दूसरी श्रेणी में वे धरोहर आते हैं जो स्थानीय या क्षेत्रीय महत्व के स्थापत्य व आध्यात्मिक श्रेणी के हैं। इन्हें दुय्यम दर्जा प्राप्त है। तीसरी श्रेणी में उन इमारतों का समावेश है, जो नगर रचना के लिहाज से महत्वपूर्ण समझे जाते हैं।
 प्राचीन ऐतिहासिक स्थल, इमारत या स्मारक देश की सभ्यता व संस्कृति की परिचायक होती हैं। गौरवपूर्ण इतिहास को जानने में इनका बहुत अधिक महत्व है। 19वीं सदी के प्रारंभिक दशक में आए सांस्कृतिक पुनर्जागरण से भारत में ऐतिहासिक धरोहरों के संरक्षण की नींव पड़ी। सबसे पहले 1810 का बंगाल रेग्युलेशन 19वां एक्ट आया। फिर 1817 का मद्रास रेग्युलेशन सातवां नामक एक्ट आया। इन दोनों के कारण सरकार को यह अधिकार प्राप्त हुआ कि वह सार्वजनिक संपत्ति के दुरुपयोग अथव अनैतिक इस्तेमाल होने पर रोक लगा सके। हांलाकि ये दोनों एक्ट इमारतों के निजी मालिकाना हक पर कोई निर्देश नहीं देते थे। फिर 1863 के बीसवें एक्ट ने सरकार को यह शक्ति प्रदान की कि वह किसी इमारत के ऐतिहासिक, प्राचीन महत्व को देखते हुए, व उसकी वास्तुकला के आधार पर उसका संरक्षण करें व दुरुपयोग होने से रोके। इस तरह कह सकते हैं कि ऐतिहासिक धरोहर संरक्षण की कानूनन शुरुआत 1810 से प्रारंभ हो गयी थी। ऐतिहासिक-सांस्कृतिक धरोहर के संरक्षण में एक नए युग का सूत्रपात हुआ, जब 1904 में प्राचीन स्मारक संरक्षण एक्ट नामक कानून लागू हुआ। 1951 में द एंशिएंट एंड हिस्टॉरिकल मांयूमेंट एंड आर्कियोलॉजिकल साइट्स एंड रिमेंस एक्ट, 1951 प्रभावी हुआ। अब तक एंशिएंट मांयूमेंट प्रोटेक्शन एक्ट 1904 के तहत ऐतिहासिक महत्व की संरक्षित की जाने वाली जिन इमारतों को चिन्हित किया गया था, उन्हें 1951 के इस नए कानून के तहत दोबारा चिन्हित किया गया। देश की ऐतिहासिक धरोहर के संरक्षण व उपरोक्त कानूनों को प्रभावशाली तरीके से लागू करने के लिए 28 अगस्त 1958 को द एन्शिएन्ट मांयूमेंट एंड आर्कियोलॉजिकल साइट्स एंड रिमेंस एक्ट 1958 भी लागू किया गया।प्राचीन स्मारक एवं पुरातत्वीय स्थल तथा अवशेष (संशोधन और विधिमान्यकरण) विधेयक, 2010, के अनुसार,  संरक्षित स्मारकों और स्थलों के सभी दिशाओं में 100 मीटर की एक न्यूनतम क्षेत्र के दायरे में किसी भी प्रयोजन से किया गया कोई भी निर्माण कार्य  निषिध्द होगा।
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