शिक्षा स्तर में सुधार की बात तो बहुत होती है पर वे सभी जमीनी हकीकत से कोसों दूर हैं। उपराजधानी में कई स्कूलों पर लगा ग्रहण आसानी से देखा जा सकता है। राज्य सरकार ने 6 से 14 वर्ष के सभी बच्चों को शिक्षा सुनिश्चित करने के लिए 'बालकांचा मोफ्त व सक्तीच्या शिक्षणाचा अधिकार अधिनियम-2009 को 31 मार्च 2013 से पूरी तरह अमल में लाने निर्णय लिया है। इसमें महानगरपालिकाओं के अंतर्गत आने वाले स्कूल भी शामिल हैं। विडंबना ही है कि विद्यार्थियों की कमी के चलते महानगरपालिका की कई स्कूलें बंद तक कर दी गईं। सुविधाओं की घोषणा के बावजूद पालक मनपा शालाओं का रूख नहीं करते, लेकिन शहरी आबादी के बीच कुछ ऐसे भी परिवार हैं, जिनके बच्चे महानगरपालिका और जिला परिषद की स्कूलों में पढ़ते हैं पर उन स्कूलों की हालत बेहद खराब है। छतें बारिश की बूंदों को संभाल नहीं पाती। कई शालाओं में तो छात्र-छात्राओं के लिए एक ही प्रसाधनगृह है। बानगी के तौर पर पूर्व नागपुर के मिनी माता नगर मनपा शाला, संजयनगर मनपा शाला, कुंदनलाल गुप्ता मनपा शाला जैसी अनेक स्कूलों को रेखांकित किया जा सकता है। इनकी हालात देखकर यह कहीं से नहीं कहा जा सकता है कि यह किसी 1400 करोड़ रुपए के सालाना बजट वाली महानगरपालिका के स्कूल हैं। शाला के आस पास का परिसर तो कूड़ा घर बन चुका है। भयंकर बदबू रहती है। शाला के आस-पास मवेशी घूमते नजर आते हैं। संभवत: यही कारण है कि इन स्कूलों को देखने का नजरिया भी बदल गया है और बौनी मानसिकता के बूते आसमान छूने की बात बेमानी ही है...।
मिनी मातानगर मनपा शाला
इस शाला की इमारत में हिंदी तथा मराठी की 1 से 4 तथा 4 से 7 तक की कक्षाएं लगती हैं। दोपहर की हिंदी प्राथमिक शाला में 129 छात्र तथा 150 छात्राएं अध्ययनरत हैं। सुबह तथा शाम के सत्रों में अलग-अलग शालाएं संचालित की जाती हैं। प्रसाधनगृह के अभाव में विशेष रूप से छात्राओं को आस-पड़ोस के मकानों में शरण लेनी पड़ती है। शिक्षकों ने आपस में चंदा जमा कर छात्राओं के लिए एक प्रसाधनगृह बनवाया। छात्रों को सुरक्षा दीवार का सहारा लेते देखा जा सकता है। मजबूरी में छात्र-छात्राएं एक ही प्रसाधनगृह का उपयोग करते देखे जाते हैं।
संजयनगर हिंदी मनपा शाला
मनपा द्वारा संचालित वृहद शाला में संजयनगर हिंदी शाला का शुमार होता है। यहां पहली से दसवीं तक की पढ़ाई होती है। विद्यार्थियों की संख्या को देखते हुए यहां सुबह तथा दोपहर, दो सत्र में पढ़ाई होती है। सुबह की शाला में 6 शाखाएं हैं। छत्तीसगढ़ी मजदूर बहुल इस क्षेत्र में छात्र-छात्राओं की संख्या ज्यादा है। मनपा प्रशासन द्वारा ऐसी शालाओं की व्यवस्था पर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए, जबकि यहां कुछ गज के परिसर को मैदान का रूप दिया गया है। शाला में कुल 6 से 8 हजार विद्यार्थी हैं पर प्रसाधनगृह की उचित व्यवस्था नहीं। पेयजल का नल सिर्फ आधे दिन शुरू रहता है। शौचालय गंदगी से भरे पड़े हैं। बारिश में दूसरे माले की कक्षाओं में छत से पानी टपकने लगता है। मनपा प्रशासन द्वारा विद्यार्थियों को किताब, कॉपियां, बरसाती, बस्ते, साइकिल, जूते, मोजे, टाई, बेल्ट तथा भोजन की व्यवस्था पर बड़ी धनराशि खर्च की जाती है, जबकि दैनंदिन आवश्यकताओं की अनदेखी की जाती है। प्रभाग 33 के सरिता ईश्वर कावरे तथा जगतराम सिन्हा के क्षेत्र में यह शाला स्थित है। पेयजल की व्यवस्था के लिए लगाई गई पानी टंकी टूटी-फूटी अवस्था में है। उचित नियोजन के अभाव में प्रशासन की बड़ी धनराशि यहां व्यर्थ पाई जा रही है।
कुंदनलाल गुप्ता मनपा शाला
देश के विख्यात क्रांतिकारी कुंदनलाल गुप्त के नाम पर चल रही मनपा शाला के विद्यार्थी कुंदनलाल गुप्ता के इतिहास से अनभिज्ञ हैं। शाला में कहीं भी कुंदनलाल गुप्ता का छायाचित्र नहीं। करीब 9 हजार छात्र-छात्राएं यहां शिक्षणरत हैं। प्यास बुझाने के लिए इन्हें शाला से बाहर जाना पड़ता है। पहली से चौथी तक के छात्र-छात्राओं के लिए एक ही प्रसाधनगृह है। बारिश होते ही परिसर तालाब में तब्दील हो जाता है। सुबह तथा दोपहर, दो सत्रों में स्कूल चलता है। प्रभाग क्र. 14 के नगरसेवक पूर्व महापौर किशोर डोरले तथा सिंधु उईके के क्षेत्र में यह शाला है।
निजी स्कूलों को मिल रहा फायदा
इन सभी क्षेत्रों की शालाओं में व्याप्त असुविधाओं का पूरा लाभ निजी शालाएं उठा रही हैं। मई-जून माह में इनके एजेंट प्रलोभन देकर शाला के आसपास की बस्तियों से छात्र-छात्राओं को 'हथिया लेते हैं। उचित नियोजन व्यवस्था अपनाकर प्रशासन द्वारा खर्च की जा रही राशि की सार्थकता निश्चित की जा सकती है। प्रत्येक शालाओं को मिलने वाले विभिन्न अनुदान से भी छोटी-मोटी समस्याएं दूर की जा सकती हैं। सभी शालाओं में पालक समिति है। प्रभाग के नगरसेवक तथा शाला के मुख्याध्यापक, पालक समिति के अध्यक्ष तथा सचिव होते हैं। व्यवस्थापन समिति, पालक समिति तथा प्रशासन के उचित तालमेल से इन असुविधाओं को दूर करने के लिए अनुकूल स्थिति बनाई जा सकती है।
गुहार से नहीं, सुधार से बनेगी बात
नागपुर विभाग में पहली से बारहवीं कक्षा तक कुल मिलाकर 3 हजार 928 विद्यालय हैं। इसमें 9 लाख 13 हजार 159 विद्यार्थी हैं। इनके भविष्य की बागडोर 31 हजार 568 शिक्षकों पर है। पहली से आठवीं कक्षा में 6 लाख 47 हजार 92 विद्यार्थी और लगभग 22 हजार 990 शिक्षक हैं। विद्यालयों की संख्या के हिसाब से मुख्याध्यापकों की संख्या काफी कम यानी 1 हजार 985 हैं। शिक्षा की गुणवत्ता सुधारने के लिहाज से नागपुर जिले को 13 ब्लॉक व 5 यूआरसी में विभाजित किया गया है।
यह है नियम
शिक्षा का अधिकार नियम (आरटीई) के अनुसार पहली से चौथी कक्षा तक 30 विद्यार्थियों पर 1 शिक्षक होना चाहिए। इसके माध्यमिक यानी पहली से सातवीं तक 35 विद्यार्थियों पर एक शिक्षक होना चाहिए।
विद्यालयों की संख्या
नागपुर विभाग में जिला परिषद की 1 हजार 528, महानगरपालिका के 209, नगर परिषद के 75, राज्य सरकार द्वारा संचालित 19 विद्यालय हैं। निजी अनुदानित 1 हजार 118 व बिना अनुदानित 873 विद्यालय हैं।
शालेय पोषण आहार व मध्याह्न भोजन
पहली से पांचवीं कक्षा तक विद्यार्थियों को दी जानेवाली खिचड़ी को शालेय पोषण आहार नाम दिया गया है। इसमें प्रति विद्यार्थी के हिसाब से 3.2 पैसे सरकार प्रदान करती है। छठवीं से आठवीं कक्षा को दी जानेवाली खिचड़ी को मध्यान भोजन कहते हैं। इसमें प्रति विद्यार्थी 4.47 पैसे सरकार देती है। ग्रामीण भागों में अनाज रखने के लिए कोठियां प्रदान की गई हैं। शालेय पोषण आहार व मध्याह्न भोजन की व्यवस्था सरकारी व अनुदानित विद्यालयों के लिए ही की गई है। समय-समय पर अधीक्षक विद्यालयों का दौरा करते हैं। भोजन बनाने वाले स्थान और प्रयुक्त बर्तनों की साफ-सफाई पर विशेष ध्यान देना होता है। सर्वशिक्षा अभियान के तहत शिक्षा व विद्यालयों की स्थिति सुधारने के लिए राज्य सरकार भले ही करोड़ों रुपये खर्च कर रही हो लेकिन इसका सही तरीके से नियोजन नहीं होने से कई विद्यालय नवीनीकरण के इंतजार में हैं।
न्यायालय जा सकते हैं पालक
पहली से आठवीं कक्षा के विद्यार्थियों का मूल्य मापन करना शिक्षकों के लिए किसी चुनौती से कम नहीं रह गया है। शिक्षा के अधिकार (आरटीई) के तहत विद्यार्थियों के व्यक्तित्व विकास के साथ ही विषयों से जुड़ी विद्यार्थी की हर समस्या का समाधान जरुरी हो चुका है। पहली कक्षा का विद्यार्थी आगे की कक्षा में जाता है और यदि वहां वह लिखने पढऩे में असमर्थ होता है, तो पालक संबंधित शिक्षक व शाला प्रशासन की कार्यपद्ïधति पर सवाल उठा सकते है। इतना ही नहीं वे न्यायालय में इसकी शिकायत भी दर्ज करवा सकते हैं। नियमानुसार शिक्षकों की विद्यार्थी के प्रति जिम्मेदारी बढ़ गई है। कमजोर विद्यार्थी को महज कमजोर मानकर छोड़ा नहीं जा सकता है। कमजोर विद्यार्थियों को सामान्य श्रेणी में लाने के लिए शिक्षकों को काफी मेहनत करना जरूरी हो गया। इसके लिए शाला प्रशासन को विद्यार्थी का मूल्य मापन करते समय विशेष ध्यान देने की जरुरत होगी।
शिक्षकों की संख्या कम
विद्यार्थियों की संख्या के लिहाज से शिक्षकों की संख्या काफी कम है। सरकार ने भले ही कक्षाओं को बढ़ाने के निर्देश जारी किए हैं, लेकिन इसे जल्दी से अमल में लाना मुश्किल है। अध्यापन कार्य के अलावा शिक्षकों को जनगणना, मतदाता सूची बनाने, पल्स पोलियो अभियान जैसे कई शासकीय कार्यों में लगाया जाता है। साफ है कि विद्यार्थियों की गुणवत्ता बढ़ाने की बात तो होती है, लेकिन अध्यापन की गुणवत्ता व शिक्षकों की संख्या बढ़ाने पर विशेष ध्यान नहीं दिया जा रहा है।
शिक्षक व विद्यार्थी के बीच खाई
सरकार ने अनेक नियमों में शिक्षकों के हाथ बांध दिए हैं। वे विद्यार्थियों को न सजा दे सकते हैं और न ही ऊं ची आवाज में डांट सकते है। ऐसे में विद्यार्थियों में अब शिक्षकों का खौफ नहीं रह गया है। शिक्षकों से बदतमीजी भी आम हो गई है। शिक्षक के नाराज होने पर सीधे पालक को बुला लिया जाता है। ऐसे में शिक्षक व विद्यार्थी के बीच खाई गहरी होती जा रही है।
औपचारिकता बना शालेय परिपाठ
राज्य के सभी विद्यालयों में विद्यार्थियों को नैतिकता का पाठ पढ़ाने के लिए शालेय परिपाठ को सम्मिलित तो किया गया है, लेकिन वर्तमान में यह केवल औपचारिकता बन कर रह गया है। नैतिक गुणों के विकास के साथ ही विद्यार्थियों में आत्मविश्वास बढ़ाने के लिए इसे पाठ्ïयक्रम का हिस्सा बनाया गया था। मुख्यमंत्री मनोहर जोशी के कार्यकाल में शालेय परिपाठ को 5 से 9 वीं कक्षा तक 20 मिनट के लिए प्रार्थना सभा के दौरान अनिवार्य किया गया था। इसके तहत प्रार्थना, राष्टï्रगीत, प्रतिज्ञा, प्रोत्साहित करनेवाली कहानी, विचार, दैनिक खबरों की हेडलाइन जैसे महत्वपूर्ण अंग शामिल हैं। इसके माध्यम से विद्यार्थियों में नैतिक मूल्यों को बढ़ाने के साथ-साथ उन्हें रोजमर्रा की घटनाओं से आद्यतन करना है।
विद्यालय विकास समिति
राज्य शिक्षा मंडल की ओर से शालाओं में लोकल एनक्वायरी कमेटी (एलईसी) में पालकों व विद्यार्थी की भूमिका पर अधिक जोर दिया जा रहा है, लेकिन विद्यालय प्रशासन की मानें तो विद्यालय द्वारा आयोजित बैठकों में पालकों की भूमिका गौण दिखाई पड़ती है। सरकारी व अनुदानित विद्यालयों में पढऩेवाले बच्चे मध्यम वर्ग या गरीबी रेखा सीमा से नीचे वाले होते हैं। ऐसे अभिभावक बच्चों की शिक्षा पर अधिक ध्यान नहीं दे पाते हैं। विद्यालयों में विद्यालय विकास समिति होती है, इसमें पार्षद, प्राचार्य, उपप्राचार्य, शिक्षक, पालक, विद्यार्थी, एससी-एसटी सदस्यों का समावेश है। इसमें भी 33 प्रतिशत महिलाएं होनी चाहिए। कमेटी की बैठक में अक्सर पालकों की गैरमौजूदगी देखी जाती है। इससे बैठकों में तथ्यपूर्ण हल निकलकर नहीं आता है।
यू डायस में ली जा रही जानकारी
शिक्षा का अधिकार (आरटीई) के तहत शालाओं की सटीक जानकारी प्राप्त करने के लिए उन्हें यूनीफाइड डिस्ट्रिक्ट इनफारमेशन सिस्टम फॉर एजुकेशन (यू डायस) के तहत ला दिया गया है। इसमें पहली से बारहवीं कक्षा को एक ही श्रेणी में लाया गया है। सीबीएसई, जिला परिषद, मनपा, राज्य सरकार व अन्य प्रकार की सभी विद्यालयों को शाला में उपलब्ध संसाधनों की जानकारी उपलब्ध करानी होगी। इसमें विद्यालयों में शिक्षकों, गैरशिक्षक कर्मचारियों, विद्यार्थियों की संख्या शौचालय, खेल का मैदान, पीने का पानी जैसी सुविधाओं की जानकारी देनी है।
स्थिति में बदलाव की संभावना कम
वर्ष 2011-12 में जांच के बाद पाया गया था कि 96 विद्यालय ही शिक्षा के अधिकार (आरटीई) के तहत बने नियमों पर खरी उतरी थीं। 83 विद्यालयों में एक ही शिक्षक थे। 781 शालाओं में 2 से 100 विद्यार्थी ही पाए गए थे। वर्ष 2012-13 की नई रिपोर्ट अभी तैयार नहीं हुई है। जानकारों की मानें तो उक्त आंकड़ों में ज्यादा बदलाव की उम्मीद नहीं है। वर्ष 2011 में विद्यालयों की हुई जांच के बाद नए शिक्षकों की नियुक्ति पर वैसे ही रोक लगा दी गई थी। ऐसे में शिक्षकों की संख्या में कमी की ही संभावना है।
सुविधाओं का अभाव
विद्यालयों में बिजली, पानी, फर्निचर व ढांचागत सुविधाओं का अभाव है। कुछ स्कूलें तो बंद भी हो चुकी है और कुछ बंद होने की कगार पर है। हिंदी व मराठी शालाओं में विद्यार्थियों की संख्या दिन-ब-दिन घट रही है। राज्य मंडल का पाठ्ïयक्रम चला रही अंग्रेजी माध्यम की शालाओं में भी विद्यार्थियों की कमी देखी जा रही है। पालकों की रूचि अपने बच्चे को सीबीएसई शालाओं में पढ़ाने की ओर बढ़ी है।
शिक्षक नहीं ले रहे रूचि
सूत्र से मिली जानकारी के मुताबिक, कक्षा में इक्का-दुक्का विद्यार्थी होने से शिक्षक उत्साहपूर्वक नहीं पढ़ाते हैं। ऐसी स्थिति ज्यादातर नगर परिषद, जिला परिषद व महानगरपालिका की शालाओं में देखी जा रही है। विद्यार्थी संख्या कम देखकर कई बार शिक्षक कक्षा लेने ही नहीं पहुंचते हैं। जो आते हैं वे विद्यालय के अलावा दूसरे कार्यो में व्यस्त रहते हैं। कई बार तो शिक्षक बाहरी कार्यों के लिए बीच में ही पलायन कर जाते हैं। ऐसे में बच्चों में शिक्षा के प्रति अरुचि निर्माण होती है। जहां एक ही शिक्षक हैं, ऐसे विद्याालय में शिक्षक के अवकाश पर होने से शाला ही बंद पड़ जाती है।
साफ है कि शिक्षा हक अभियान लक्ष्य से भटक गया है। हर समाज के अंतिम बच्चे तक शिक्षा मिले, यह लक्ष्य खंडित हो कर रह गया है। आरटीआई के नियमों की तराजू पर मनपा के स्कूलों का आंकलन किया जाए तो चंद ही स्कूल होंगे जो सभी औपचारिकताएं पूरी करते हैं। केवल शिक्षा का अधिकार लाने से बच्चे शिक्षित नहीं होंगे, प्रशासन को इसके लिए औपचारिकताएं भी पूरी करनी होंगी।
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मिनी मातानगर मनपा शाला
इस शाला की इमारत में हिंदी तथा मराठी की 1 से 4 तथा 4 से 7 तक की कक्षाएं लगती हैं। दोपहर की हिंदी प्राथमिक शाला में 129 छात्र तथा 150 छात्राएं अध्ययनरत हैं। सुबह तथा शाम के सत्रों में अलग-अलग शालाएं संचालित की जाती हैं। प्रसाधनगृह के अभाव में विशेष रूप से छात्राओं को आस-पड़ोस के मकानों में शरण लेनी पड़ती है। शिक्षकों ने आपस में चंदा जमा कर छात्राओं के लिए एक प्रसाधनगृह बनवाया। छात्रों को सुरक्षा दीवार का सहारा लेते देखा जा सकता है। मजबूरी में छात्र-छात्राएं एक ही प्रसाधनगृह का उपयोग करते देखे जाते हैं।
संजयनगर हिंदी मनपा शाला
मनपा द्वारा संचालित वृहद शाला में संजयनगर हिंदी शाला का शुमार होता है। यहां पहली से दसवीं तक की पढ़ाई होती है। विद्यार्थियों की संख्या को देखते हुए यहां सुबह तथा दोपहर, दो सत्र में पढ़ाई होती है। सुबह की शाला में 6 शाखाएं हैं। छत्तीसगढ़ी मजदूर बहुल इस क्षेत्र में छात्र-छात्राओं की संख्या ज्यादा है। मनपा प्रशासन द्वारा ऐसी शालाओं की व्यवस्था पर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए, जबकि यहां कुछ गज के परिसर को मैदान का रूप दिया गया है। शाला में कुल 6 से 8 हजार विद्यार्थी हैं पर प्रसाधनगृह की उचित व्यवस्था नहीं। पेयजल का नल सिर्फ आधे दिन शुरू रहता है। शौचालय गंदगी से भरे पड़े हैं। बारिश में दूसरे माले की कक्षाओं में छत से पानी टपकने लगता है। मनपा प्रशासन द्वारा विद्यार्थियों को किताब, कॉपियां, बरसाती, बस्ते, साइकिल, जूते, मोजे, टाई, बेल्ट तथा भोजन की व्यवस्था पर बड़ी धनराशि खर्च की जाती है, जबकि दैनंदिन आवश्यकताओं की अनदेखी की जाती है। प्रभाग 33 के सरिता ईश्वर कावरे तथा जगतराम सिन्हा के क्षेत्र में यह शाला स्थित है। पेयजल की व्यवस्था के लिए लगाई गई पानी टंकी टूटी-फूटी अवस्था में है। उचित नियोजन के अभाव में प्रशासन की बड़ी धनराशि यहां व्यर्थ पाई जा रही है।
कुंदनलाल गुप्ता मनपा शाला
देश के विख्यात क्रांतिकारी कुंदनलाल गुप्त के नाम पर चल रही मनपा शाला के विद्यार्थी कुंदनलाल गुप्ता के इतिहास से अनभिज्ञ हैं। शाला में कहीं भी कुंदनलाल गुप्ता का छायाचित्र नहीं। करीब 9 हजार छात्र-छात्राएं यहां शिक्षणरत हैं। प्यास बुझाने के लिए इन्हें शाला से बाहर जाना पड़ता है। पहली से चौथी तक के छात्र-छात्राओं के लिए एक ही प्रसाधनगृह है। बारिश होते ही परिसर तालाब में तब्दील हो जाता है। सुबह तथा दोपहर, दो सत्रों में स्कूल चलता है। प्रभाग क्र. 14 के नगरसेवक पूर्व महापौर किशोर डोरले तथा सिंधु उईके के क्षेत्र में यह शाला है।
निजी स्कूलों को मिल रहा फायदा
इन सभी क्षेत्रों की शालाओं में व्याप्त असुविधाओं का पूरा लाभ निजी शालाएं उठा रही हैं। मई-जून माह में इनके एजेंट प्रलोभन देकर शाला के आसपास की बस्तियों से छात्र-छात्राओं को 'हथिया लेते हैं। उचित नियोजन व्यवस्था अपनाकर प्रशासन द्वारा खर्च की जा रही राशि की सार्थकता निश्चित की जा सकती है। प्रत्येक शालाओं को मिलने वाले विभिन्न अनुदान से भी छोटी-मोटी समस्याएं दूर की जा सकती हैं। सभी शालाओं में पालक समिति है। प्रभाग के नगरसेवक तथा शाला के मुख्याध्यापक, पालक समिति के अध्यक्ष तथा सचिव होते हैं। व्यवस्थापन समिति, पालक समिति तथा प्रशासन के उचित तालमेल से इन असुविधाओं को दूर करने के लिए अनुकूल स्थिति बनाई जा सकती है।
गुहार से नहीं, सुधार से बनेगी बात
नागपुर विभाग में पहली से बारहवीं कक्षा तक कुल मिलाकर 3 हजार 928 विद्यालय हैं। इसमें 9 लाख 13 हजार 159 विद्यार्थी हैं। इनके भविष्य की बागडोर 31 हजार 568 शिक्षकों पर है। पहली से आठवीं कक्षा में 6 लाख 47 हजार 92 विद्यार्थी और लगभग 22 हजार 990 शिक्षक हैं। विद्यालयों की संख्या के हिसाब से मुख्याध्यापकों की संख्या काफी कम यानी 1 हजार 985 हैं। शिक्षा की गुणवत्ता सुधारने के लिहाज से नागपुर जिले को 13 ब्लॉक व 5 यूआरसी में विभाजित किया गया है।
यह है नियम
शिक्षा का अधिकार नियम (आरटीई) के अनुसार पहली से चौथी कक्षा तक 30 विद्यार्थियों पर 1 शिक्षक होना चाहिए। इसके माध्यमिक यानी पहली से सातवीं तक 35 विद्यार्थियों पर एक शिक्षक होना चाहिए।
विद्यालयों की संख्या
नागपुर विभाग में जिला परिषद की 1 हजार 528, महानगरपालिका के 209, नगर परिषद के 75, राज्य सरकार द्वारा संचालित 19 विद्यालय हैं। निजी अनुदानित 1 हजार 118 व बिना अनुदानित 873 विद्यालय हैं।
शालेय पोषण आहार व मध्याह्न भोजन
पहली से पांचवीं कक्षा तक विद्यार्थियों को दी जानेवाली खिचड़ी को शालेय पोषण आहार नाम दिया गया है। इसमें प्रति विद्यार्थी के हिसाब से 3.2 पैसे सरकार प्रदान करती है। छठवीं से आठवीं कक्षा को दी जानेवाली खिचड़ी को मध्यान भोजन कहते हैं। इसमें प्रति विद्यार्थी 4.47 पैसे सरकार देती है। ग्रामीण भागों में अनाज रखने के लिए कोठियां प्रदान की गई हैं। शालेय पोषण आहार व मध्याह्न भोजन की व्यवस्था सरकारी व अनुदानित विद्यालयों के लिए ही की गई है। समय-समय पर अधीक्षक विद्यालयों का दौरा करते हैं। भोजन बनाने वाले स्थान और प्रयुक्त बर्तनों की साफ-सफाई पर विशेष ध्यान देना होता है। सर्वशिक्षा अभियान के तहत शिक्षा व विद्यालयों की स्थिति सुधारने के लिए राज्य सरकार भले ही करोड़ों रुपये खर्च कर रही हो लेकिन इसका सही तरीके से नियोजन नहीं होने से कई विद्यालय नवीनीकरण के इंतजार में हैं।
न्यायालय जा सकते हैं पालक
पहली से आठवीं कक्षा के विद्यार्थियों का मूल्य मापन करना शिक्षकों के लिए किसी चुनौती से कम नहीं रह गया है। शिक्षा के अधिकार (आरटीई) के तहत विद्यार्थियों के व्यक्तित्व विकास के साथ ही विषयों से जुड़ी विद्यार्थी की हर समस्या का समाधान जरुरी हो चुका है। पहली कक्षा का विद्यार्थी आगे की कक्षा में जाता है और यदि वहां वह लिखने पढऩे में असमर्थ होता है, तो पालक संबंधित शिक्षक व शाला प्रशासन की कार्यपद्ïधति पर सवाल उठा सकते है। इतना ही नहीं वे न्यायालय में इसकी शिकायत भी दर्ज करवा सकते हैं। नियमानुसार शिक्षकों की विद्यार्थी के प्रति जिम्मेदारी बढ़ गई है। कमजोर विद्यार्थी को महज कमजोर मानकर छोड़ा नहीं जा सकता है। कमजोर विद्यार्थियों को सामान्य श्रेणी में लाने के लिए शिक्षकों को काफी मेहनत करना जरूरी हो गया। इसके लिए शाला प्रशासन को विद्यार्थी का मूल्य मापन करते समय विशेष ध्यान देने की जरुरत होगी।
शिक्षकों की संख्या कम
विद्यार्थियों की संख्या के लिहाज से शिक्षकों की संख्या काफी कम है। सरकार ने भले ही कक्षाओं को बढ़ाने के निर्देश जारी किए हैं, लेकिन इसे जल्दी से अमल में लाना मुश्किल है। अध्यापन कार्य के अलावा शिक्षकों को जनगणना, मतदाता सूची बनाने, पल्स पोलियो अभियान जैसे कई शासकीय कार्यों में लगाया जाता है। साफ है कि विद्यार्थियों की गुणवत्ता बढ़ाने की बात तो होती है, लेकिन अध्यापन की गुणवत्ता व शिक्षकों की संख्या बढ़ाने पर विशेष ध्यान नहीं दिया जा रहा है।
शिक्षक व विद्यार्थी के बीच खाई
सरकार ने अनेक नियमों में शिक्षकों के हाथ बांध दिए हैं। वे विद्यार्थियों को न सजा दे सकते हैं और न ही ऊं ची आवाज में डांट सकते है। ऐसे में विद्यार्थियों में अब शिक्षकों का खौफ नहीं रह गया है। शिक्षकों से बदतमीजी भी आम हो गई है। शिक्षक के नाराज होने पर सीधे पालक को बुला लिया जाता है। ऐसे में शिक्षक व विद्यार्थी के बीच खाई गहरी होती जा रही है।
औपचारिकता बना शालेय परिपाठ
राज्य के सभी विद्यालयों में विद्यार्थियों को नैतिकता का पाठ पढ़ाने के लिए शालेय परिपाठ को सम्मिलित तो किया गया है, लेकिन वर्तमान में यह केवल औपचारिकता बन कर रह गया है। नैतिक गुणों के विकास के साथ ही विद्यार्थियों में आत्मविश्वास बढ़ाने के लिए इसे पाठ्ïयक्रम का हिस्सा बनाया गया था। मुख्यमंत्री मनोहर जोशी के कार्यकाल में शालेय परिपाठ को 5 से 9 वीं कक्षा तक 20 मिनट के लिए प्रार्थना सभा के दौरान अनिवार्य किया गया था। इसके तहत प्रार्थना, राष्टï्रगीत, प्रतिज्ञा, प्रोत्साहित करनेवाली कहानी, विचार, दैनिक खबरों की हेडलाइन जैसे महत्वपूर्ण अंग शामिल हैं। इसके माध्यम से विद्यार्थियों में नैतिक मूल्यों को बढ़ाने के साथ-साथ उन्हें रोजमर्रा की घटनाओं से आद्यतन करना है।
विद्यालय विकास समिति
राज्य शिक्षा मंडल की ओर से शालाओं में लोकल एनक्वायरी कमेटी (एलईसी) में पालकों व विद्यार्थी की भूमिका पर अधिक जोर दिया जा रहा है, लेकिन विद्यालय प्रशासन की मानें तो विद्यालय द्वारा आयोजित बैठकों में पालकों की भूमिका गौण दिखाई पड़ती है। सरकारी व अनुदानित विद्यालयों में पढऩेवाले बच्चे मध्यम वर्ग या गरीबी रेखा सीमा से नीचे वाले होते हैं। ऐसे अभिभावक बच्चों की शिक्षा पर अधिक ध्यान नहीं दे पाते हैं। विद्यालयों में विद्यालय विकास समिति होती है, इसमें पार्षद, प्राचार्य, उपप्राचार्य, शिक्षक, पालक, विद्यार्थी, एससी-एसटी सदस्यों का समावेश है। इसमें भी 33 प्रतिशत महिलाएं होनी चाहिए। कमेटी की बैठक में अक्सर पालकों की गैरमौजूदगी देखी जाती है। इससे बैठकों में तथ्यपूर्ण हल निकलकर नहीं आता है।
यू डायस में ली जा रही जानकारी
शिक्षा का अधिकार (आरटीई) के तहत शालाओं की सटीक जानकारी प्राप्त करने के लिए उन्हें यूनीफाइड डिस्ट्रिक्ट इनफारमेशन सिस्टम फॉर एजुकेशन (यू डायस) के तहत ला दिया गया है। इसमें पहली से बारहवीं कक्षा को एक ही श्रेणी में लाया गया है। सीबीएसई, जिला परिषद, मनपा, राज्य सरकार व अन्य प्रकार की सभी विद्यालयों को शाला में उपलब्ध संसाधनों की जानकारी उपलब्ध करानी होगी। इसमें विद्यालयों में शिक्षकों, गैरशिक्षक कर्मचारियों, विद्यार्थियों की संख्या शौचालय, खेल का मैदान, पीने का पानी जैसी सुविधाओं की जानकारी देनी है।
स्थिति में बदलाव की संभावना कम
वर्ष 2011-12 में जांच के बाद पाया गया था कि 96 विद्यालय ही शिक्षा के अधिकार (आरटीई) के तहत बने नियमों पर खरी उतरी थीं। 83 विद्यालयों में एक ही शिक्षक थे। 781 शालाओं में 2 से 100 विद्यार्थी ही पाए गए थे। वर्ष 2012-13 की नई रिपोर्ट अभी तैयार नहीं हुई है। जानकारों की मानें तो उक्त आंकड़ों में ज्यादा बदलाव की उम्मीद नहीं है। वर्ष 2011 में विद्यालयों की हुई जांच के बाद नए शिक्षकों की नियुक्ति पर वैसे ही रोक लगा दी गई थी। ऐसे में शिक्षकों की संख्या में कमी की ही संभावना है।
सुविधाओं का अभाव
विद्यालयों में बिजली, पानी, फर्निचर व ढांचागत सुविधाओं का अभाव है। कुछ स्कूलें तो बंद भी हो चुकी है और कुछ बंद होने की कगार पर है। हिंदी व मराठी शालाओं में विद्यार्थियों की संख्या दिन-ब-दिन घट रही है। राज्य मंडल का पाठ्ïयक्रम चला रही अंग्रेजी माध्यम की शालाओं में भी विद्यार्थियों की कमी देखी जा रही है। पालकों की रूचि अपने बच्चे को सीबीएसई शालाओं में पढ़ाने की ओर बढ़ी है।
शिक्षक नहीं ले रहे रूचि
सूत्र से मिली जानकारी के मुताबिक, कक्षा में इक्का-दुक्का विद्यार्थी होने से शिक्षक उत्साहपूर्वक नहीं पढ़ाते हैं। ऐसी स्थिति ज्यादातर नगर परिषद, जिला परिषद व महानगरपालिका की शालाओं में देखी जा रही है। विद्यार्थी संख्या कम देखकर कई बार शिक्षक कक्षा लेने ही नहीं पहुंचते हैं। जो आते हैं वे विद्यालय के अलावा दूसरे कार्यो में व्यस्त रहते हैं। कई बार तो शिक्षक बाहरी कार्यों के लिए बीच में ही पलायन कर जाते हैं। ऐसे में बच्चों में शिक्षा के प्रति अरुचि निर्माण होती है। जहां एक ही शिक्षक हैं, ऐसे विद्याालय में शिक्षक के अवकाश पर होने से शाला ही बंद पड़ जाती है।
साफ है कि शिक्षा हक अभियान लक्ष्य से भटक गया है। हर समाज के अंतिम बच्चे तक शिक्षा मिले, यह लक्ष्य खंडित हो कर रह गया है। आरटीआई के नियमों की तराजू पर मनपा के स्कूलों का आंकलन किया जाए तो चंद ही स्कूल होंगे जो सभी औपचारिकताएं पूरी करते हैं। केवल शिक्षा का अधिकार लाने से बच्चे शिक्षित नहीं होंगे, प्रशासन को इसके लिए औपचारिकताएं भी पूरी करनी होंगी।
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