शुक्रवार, 27 अगस्त 2021

‘एक वार्ड, एक सदस्य’ जनता के कितने करीब

आगामी महानगरपालिका चुनाव की रूपरेखा तैयार हो चुकी है। इस बार ‘एक वार्ड, एक सदस्य’ प्रक्रिया को अपनाया जा रहा है। इसके राजनीतिक उद्देश्य चाहे जो हों, सामाजिक उद्देश्य तो यही है कि सरकार के नुमाइंदों की घर-घर तक पहुंच हो। मतलब, इस देश का कोई भी व्यक्ति हाशिये पर न रहे। भारत लगभग 250 वर्ष तक अंग्रेजों की दासता में रहा। आरंभ से ही अंग्रेजों की नीति थी कि शासन का काम, अधिकाधिक राज्य कर्मचारियों के हाथों में ही रहे। इसके परिणामस्वरूप फौजदारी और दीवानी अदालतों की स्थापना, नवीन राजस्व नीति, पुलिस व्यवस्था आदि कारणों से गांवों का स्वावलंबी जीवन और स्थानीय स्वायत्तता धीरे-धीरे समाप्त हो गई। पंचायतें स्थानीय शासन के रूप में कार्य करती थी, परंतु यह कार्य सरकारी नियंत्रण में होता था। कुछ समय बाद अंग्रेजों ने भी अनुभव किया कि उनकी केंद्रीकरण की नीति से शासन की जटिलता दिन-प्रति-दिन बढ़ती ही जा रही है। सन् 1882 ई. में स्थानीय स्वशासन के विकास में एक नए अध्याय का शुभारंभ हुआ। 1882 ई. में लॉर्ड रिपन द्वारा प्रस्तुत ‘स्थानीय स्वशासन प्रस्ताव’ को भारत में आधुनिक स्थानीय स्वशासन का प्रारंभ माना जाता है। जिसे ‘स्थानीय स्वशासन’ संस्थाओं का ‘मैग्नाकार्टा’ भी कहते हैं।  लार्ड रिपन ने भारत में स्थानीय स्वशासन में को एक नई दिशा दी। इसीलिए लॉर्ड रिपन को आधुनिक स्थानीय स्वशासन का जनक कहा जाता है। बीसवीं सदी के शुभारंभ में भारत शासन अधिनियम 1909, 1919 और 1935 में स्वशासन की व्यवस्था को अपनाते हुए प्रांतों को स्थानीय स्वशासन के क्षेत्र में कई अधिकार दिए गए। 1908 ई. में विकेन्द्रीकरण के लिए गठित ‘राजकीय आयोग’ की रिपोर्ट ने स्थानीय स्वायत शासन के लिए महत्वपूर्ण सिफारिशें प्रस्तुत की। आयोग ने जिला बोर्ड तथा जिला नगरपालिकाओं के कार्यों को विभाजित करने के लिए ग्राम पंचायत और उपजिला बोर्डों के विकास पर बल दिया और फिर धीरे-धीरे शासन का प्रारूप बदलता हुआ जिला बोर्ड तथा जिला नगरपालिकाओं, ग्राम पंचायत और उपजिला बोर्डों के स्वरूप में आ गया। 

समय के साथ राजनीतिक हस्तक्षेप के कारण इनमें परिवर्तन भी किया जाता रहा। महाराष्ट्र में ठाकरे सरकार ने सत्ता संभालते ही बहुसदस्यीय प्रभाग पद्धति बदलने का निर्णय लिया था। कारण, प्रभाग पद्धति को लेकर शिकायत थी कि नगरसेवकों के काम की जवाबदेही तय नहीं हो पा रही है। एक वार्ड में 4 सदस्य रहने पर यह तय नहीं हो पा रहा था कि विकास कार्य किसने किया। मगर वार्ड पद्धति के चुनाव से तय होगा कि कौन से वार्ड का कौन नगरसेवक हैं और किस वार्ड में किस नगरसेवक ने सबसे अधिक विकास कार्य किया है।  और अंतत: अटकलों को खत्म करते हुए एकल सदस्यीय पद्धति यानी ‘एक वार्ड, एक सदस्य’ की घोषणा कर दी गई। इस पद्धति का सबसे बड़ा फायदा यह होगा कि अब सीधे नगरसेवक की जिम्मेदारी तय होगी। विकास कार्यों को बल मिलेगा, क्योंकि कोई नगरसेवक जिम्मेदारी से हाथ नहीं झटक सकेगा। जनता सीधे उससे जवाब मांगेगी। काम के आधार पर वार्ड स्तर के सामान्य कार्यकर्ता निर्दलीय भी चुनाव जीत पाएंगे। अगर, नागपुर के इतिहास को देखें, तो जून 1952 में मनपा का पहला चुनाव वार्ड पद्धति से हुआ था। शेषराव वानखेड़े पहले महापौर चुने गए थे। इसके बाद 2002 में प्रभाग पद्धति से व 2007 में फिर से वार्ड पद्धति से चुनाव हुआ। फिर 2012 में एक प्रभाग दो सदस्य व 2017 में एक प्रभाग 4 सदस्य पद्धति से चुनाव हुआ। देखा जाए, तो इन सभी बदलावों को सत्ता से ही जोड़कर देखा जाता रहा। कहा जाता रहा कि राजनीतिक दल अपने फायदे के लिए ऐसा करते रहे।   

उपराजधानी में फिलहाल 55 से 60 हजार जनसंख्या का एक प्रभाग है। एक प्रभाग में चार नगरसेवक हैं। नागपुर में 15 साल से भाजपा की सत्ता है। विरोधियों का लगातार आरोप रहा कि जनता की सुविधाओं पर बहुसदस्यीय प्रभाग पद्धति से चुने गए नगरसेवक ज्यादा उत्तरदायी नहीं रहे, क्योंकि जनता के प्रति उनकी जवाबदेही तय नहीं थी। महाविकास आघाड़ी ने एक सदस्यीय वार्ड पद्धति लागू करने का अच्छा निर्णय लिया है। अब एक वार्ड से एक सदस्य के चुने जाने पर संबंधित नगरसेवक की जिम्मेदारी निश्चित होगी।   दूसरी तरफ, सत्ता पर काबिज भाजपा को अपने आप पर विश्वास है। उसका कहना है कि  15 वर्ष में भाजपा के नेतृत्व में मनपा ने विकास के जो कार्य किए हैं, उनसे नागरिक प्रभावित हैं। केंद्रीय मंत्री नितीन गडकरी व पूर्व मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस के प्रयासों से जन-जन तक विकास कार्य की पहुंच आसान बनाने की कोशिश की गई है। किसी को कोई शिकायत नहीं है।         

यह तो समय ही तय करेगा कि यह व्यवस्था भी जनता के कितने करीब साबित होगी। जमीन से जुड़ाव की बात तो ठीक है, लेकिन चाटूकारों की फौज आसानी से अपनी जड़ें नहीं हिलने देंगी। बहुसदस्यीय व्यवस्था के समय यह तर्क दिया गया था कि विशेष लॉबी अपना हित साध लेती है, इसलिए अधिकार को सीमित करना समीचीन होगा। पर इसकी क्या गारंटी कि एकल प्रणाली के तहत चयनित नगरसेवक सच में सरोकारों को तवज्जो देंगे और उनके अतराफ उल्लू सीधा करने वाली ताकतें नहीं रहेंगी।  एकछत्र अधिकार की कोख से उपजने वाले भ्रष्टाचार को सिरे से तो कतई नकारा नहीं जा सकता। बहरहाल, व्यवस्थाएं तो सभी अच्छी होती हैं। अमल हो तो सुशासन, झटक दिया जाए तो कुशासन…इस ‘शासन’का भी इंतजार है।  

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