बुधवार, 18 अगस्त 2021

सावधान, भारत….अमेरिका निकला ‘भगोड़ा’, चीन और पाकिस्तान की छाती चौड़ी, खामोश खड़ा है रूस

      

अफगानिस्तान की राजधानी काबुल पर तालिबान के काबिज हो जाने के बाद अब क्षेत्रीय स्तर पर उभरता नया शक्ति संतुलन न सिर्फ भारत बल्कि अमेरिका समेत तमाम पश्चिमी देशों के लिए चिंता का नया कारण बन सकता है। एशिया महादेश की बात करें तो अब एक ‘नया नक्शा’ नजर आने लगा है। ऐसा नक्शा, जो दुनिया को सावधान करने के लिए काफी है। इस महादेश में चीन और भारत दो बड़े देश हैं, जो नदी के दो पाटों की तरह कभी मिलते नहीं। पाकिस्तान की गिनती वैसे तो इन दोनों देशों के बीच कहीं नहीं होती, लेकिन आतंक की बात जब-जब आती है, पाकिस्तान सबसे आगे खड़ा दिखता है। अब तो अफगानिस्तान आधिकारिक रूप से आतंक का गढ़ बन गया है, इसलिए  चीन का दोगला चरित्र अभी से ही सामने आने लगा है। उसने साफ-साफ कहा है कि वह अपना भविष्य खुद गढ़ने के अफगानी लोगों के अधिकार का सम्मान करता है और उनके साथ दोस्ती और सहयोग के संबंधों का विकास जारी रखना चाहता है। दूसरी तरफ, पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इमरान खान ने तो काबुल पर तालिबान के कब्जे के बाद यहां तक कह दिया कि अफगानिस्तान के लोगों ने गुलामी की जंजीरें तोड़ डाली हैं। तालिबान से पाकिस्तान के करीबी संबंधों पर तो खैर पहले भी कोई शक नहीं था। लेकिन इस बीच रूस ने भी तालिबान के प्रतिनिधियों से बातचीत शुरू करने की बात सार्वजनिक रूप से मानी, जो संकेत है कि दोनों पक्षों में सहयोग की जमीन तैयार हो रही है।

ध्यान रहे, पिछली बार तालिबान के शासन को न तो रूस ने मान्यता दी थी और न चीन ने। तब उसे महज तीन देशों- पाकिस्तान, सऊदी अरब और यूएई- से मान्यता मिली थी। इस बार चीन, पाकिस्तान, रूस, ईरान और अफगानिस्तान का यह संभावित गठजोड़ अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, जापान और भारत जैसे देशों के लिए एक बड़ी कूटनीतिक चुनौती साबित हो सकता है, जो चीन को अपने साझा विरोधी के रूप में देखते हैं।

असल में, तालिबान को अफगानिस्तान की सत्ता में लाने के पीछे चीन और पाकिस्तान की मिलीभगत है। हमें याद रखना होगा कि 10 एक दिन पहले तालिबान नेता मुल्ला बारादर जब एक डेलिगेशन लेकर चीन गए थे तो विदेश मंत्री वांग यी उनसे मिले थे। वांग यी ने तब कहा कि तालिबान शांति, रीडिवेलपमेंट और रीकंस्ट्रक्शन का एक सिंबल है। यह चौंकाने वाला बयान था, क्योंकि इससे पहले किसी ने भी तालिबान को शांति दूत नहीं कहा था। तालिबान को लेकर चीन का रवैया किसी सिद्धांत पर आधारित नहीं है। वह मौकापरस्ती कर रहा है। चीन के ऐसा करने की वजह यह है कि शिनच्यांग में उइगरों के साथ जो दुर्व्यवहार हुआ है, उससे तालिबान काफी खफा है। तालिबान सुन्नी संगठन है और शिनच्यांग सुन्नी बहुल क्षेत्र। इस लिहाज से उनमें एक भाईचारा है। शिनच्यांग में आजादी के लिए उइगुर लड़ाके आंदोलन कर रहे हैं, लेकिन उनका ठिकाना पूर्वोत्तर अफगानिस्तान का बदकशान शहर में है। चीन ने तालिबान से यह आश्वासन लिया है, वह चीन के विरोधियों के साथ सहयोग नहीं करेगा।

लेकिन भारत की ओर से तालिबान को मान्यता देने का सवाल ही पैदा नहीं होता। तालिबान 2.O यानी जिसे नया तालिबान कहा जा रहा है, वह अगर रुख को थोड़ा सा भी नरम कर ले तो भारत को उससे बात करने में कोई दिक्कत नहीं होगी। वैसे, तालिबान ने अभी तक स्पष्ट किया है कि वह भारत के खिलाफ कुछ नहीं करेगा, लेकिन तालिबान पर भरोसा करने से बड़ी कोई गलती नहीं हो सकती।   

कुल मिलाकर कहें कि अब दुनिया ने ये मान लिया है कि अफ़ग़ानिस्तान पर तालिबान का राज क़ायम हो गया है। दोहा संवाद के नाटक की उपयोगिता ख़त्म हो चुकी है। इस बातचीत का इकलौता मक़सद यही था कि तालिबान को किसी तरह से अंतरराष्ट्रीय मान्यता और पहचान दिलाई जा सके कि वो बदल गए हैं और हिंसा के बजाय, बातचीत से मसले हल करने में यक़ीन रखने लगे हैं। दोहा में बातचीत के ढोंग का एक फ़ायदा ये भी था कि इससे अमेरिकी और अफ़ग़ान जनता के मुंह बंद किए जा सकें। अशरफ़ ग़नी को सत्ता छोड़ने पर मजबूर करके शायद अमेरिका ने पाकिस्तान को उसके स्वतंत्रता दिवस का तोहफ़ा दिया है। तालिबान की जीत के बाद पाकिस्तान अपनी ख़ुशी छुपा नहीं पा रहा है। ज़ाहिर है, पाकिस्तान में भी बहुत से लोग हैं, जो दोमुंही बातें कर रहे हैं। अपने देश में तो वो तालिबान की जीत का जश्न मना रहे हैं लेकिन, ऊपर से वो दिखावा ये कर रहे हैं कि अफ़ग़ानिस्तान के तालिबानीकरण से वो बहुत फ़िक्रमंद हैं। अफ़ग़ानिस्तान के तालिबानीकरण से लोग जितना ही पाकिस्तान पर बुरे असर की बातें कर रहे हैं, उससे पाकिस्तान का ही फ़ायदा हो रहा है, क्योंकि इससे पाकिस्तान को उस ग़ुस्से और आरोप को कम करने में मदद मिल रही है कि पिछले दो दशक से वो ही तालिबान को समर्थन देता आ रहा है। इससे उसे अपने ऊपर लग रहे सारे आरोपों से पल्ला झाड़ने में भी मदद मिल रही है।

निश्चित तौर पर अफगानियों के साथ एक क्रूर मजाक हुआ है, उनके साथ धोखा हुआ है। दुनिया ने अफगानियों को तालिबान के रहमोकरम पर छोड़ दिया है।  अफगानिस्तान में आज जो हालात हैं, उसके लिए अमेरिका सबसे ज्यादा दोषी है। उसने अपनी सेना वापस बुलाने के लिए पहले तो तालिबान से बातचीत शुरू की और फिर अचानक अफगानिस्तान से निकलने का फैसला कर लिया।       

अफ़ग़ानिस्तान एक बार फिर आतंक का अड्डा बन जाएगा। वहां इस क्षेत्र ही नहीं पूरी दुनिया के इस्लामिक आतंकी संगठनों को पनाह मिलेगी।   क्या आगे चलकर तालिबान इन इस्लामिक आतंकी संगठनों के अपना एजेंडा चलाने पर लगाम लगाएगा? इस सवाल का जवाब ही बाक़ी दुनिया और ख़ास तौर से अन्य क्षेत्रीय ताक़तों से तालिबानी अफ़ग़ानिस्तान के रिश्ते तय करेगा। अभी भारत को लंबी लड़ाई के लिए तैयारी करनी चाहिए। इसमें अफ़ग़ानिस्तान में अपने दोस्तों को भारत में शरण देकर मदद करना शामिल है। अफ़ग़ानिस्तान में हालात बदले तो वो हमारे सबसे दमदार साथी होंगे। अफ़ग़ान दोस्तों की मदद करना सिर्फ़ जज़्बाती प्रतिक्रिया नहीं है। ये एक सामरिक क़दम भी है। 1990 के दशक में भारत ने जिन अफ़ग़ान नागरिकों की मदद की थी, वो पिछले 20 वर्षों में हमारे सबसे पक्के साथी साबित हुए।  इस समय भी भारत फूंक-फूंक कर कदम उठा रहा है। प्रधानमंत्री मोदी ने हाल में हुई बैठक में संकेत दिया है कि अफगान के लोगों की  भारत मदद करेगा।  उन सिख और हिंदू अल्पसंख्यकों को  शरण दी जाएगी, जो भारत आना चाहते हैं। लेकिन भारत के साथ अजीबोगरीब विडंबना है कि जहां सरकार तालिबान के खिलाफ नजर आ रही है, वहीं कुछ मुस्लिम संगठन तालिबान को बधाई देते नहीं थक रहे हैं। ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के प्रवक्ता मौलाना सज्जाद नोमानी ने  वीडियो मैसेज जारी कर कहा है कि  गरीब और निहत्थी कौम ने दुनिया की सबसे मजबूत फौज को शिकस्त दी, आपकी हिम्मत को सलाम।  15 अगस्त 2021 की तारीख इतिहास बन गई। अफगानिस्तान की सरजमीं पर एक निहत्थी और गरीब कौम, जिसके पास न साइंस, न टेक्नोलॉजी, न दौलत, न हथियार और न तादाद थी, उसने पूरी दुनिया की सबसे ज्यादा मजबूत फौजों की शिकस्त दी और काबुल के सरकारी महल में वो दाखिल हुए। उनके दाखिले का अंदाज जो दुनिया ने देखा, उसमें गुरूर और बड़े बोल नहीं नजर आए। नजर आया तो वो नौजवान, जो काबुल की सरजमीं को चूम रहे हैं और अपने मालिक का शुक्र अदा कर रहे हैं। जिन नौजवानों ने हर मुसीबत के बावजूद एक बार फिर ये दुनिया को बता दिया संख्या और हथियार नहीं, कौमी इरादा और कुर्बानी सबसे ऊपर है। जो कौम मरने के लिए तैयार हो जाए, उसे दुनिया में कोई शिकस्त नहीं दे सकता है। तालिबान को मुबारक हो। आपका दूर बैठा हुआ ये हिंदी मुसलमान आपको सलाम करता है, आपके गर्व और आपकी हिम्मत को सलाम करता है।  अब पूरे एशिया में अमन, इंसाफ, खुशहाली और तरक्की फैलेगी।

अंदाजा सहज है कि भारत में अफगानिस्तान और तालिबान को लेकर सब कुछ ठीक नहीं। सरकार सच जानती है, इसलिए आतंक का साथ नहीं दे सकती और सरकार को कटघरे में खड़ा रखने की विपक्षी फितरत तालिबान को महान बताने से नहीं चुकेंगी। समाजवादी पार्टी ने शुरूआत कर दी है। तालिबान को आतंक के लिए बस यही साथ चाहिए….।


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