शुक्रवार, 27 अगस्त 2021

जनगणना…सभी कर रहे अपने हिस्से की गणना

जन, गण और मन को संतुष्ट कर पाएगी सरकार

 

जनगणना समाज के विकास के लिए और समाज की स्थिति जानने के लिए व्यवस्थाओं हेतु एक महत्वपूर्ण रास्ता रही है। भारत के संदर्भ में यह अच्छी बात है कि यह देश विश्व में उन लोकतांत्रिक देशों में शामिल है, जिनमें जनगणना जैसे महापर्व की प्रथा है। भारत में जनगणना की परम्परा ब्रिटिश राज मे सन 1872 से लेकर आज तक नियमित रूप से समयानुसार होती चली आ रही है।  सन 1881 में नियमित रूप से लॉर्ड रिपन के कार्यकाल में जनगणना की शुरुआत हुई। यह पहली जनगणना थी जो व्यवस्थित एवं सुचारू रूप से शुरू हुई। इसी जनगणना के साथ 1881 में ही जनगणना के लिए एक अलग विभाग बनाया गया, जिसका काम जनगणना का व्यवस्थित रूप से शुरू किया जाना, उसका आधार तैयार करना एवं प्राप्त आंकड़ों पर विश्लेषण करना था। इसके बाद जनगणना की प्रक्रिया में काफी बड़े सुधार किए गए, जिनकी मदद से जनगणना कर्मी के लिए जनगणना करना आसान होता चला गया।  हालांकि समय के अनुसार इस प्रक्रिया में लगातार काफी बदलाव भी देखने को मिल रहे हैं। भारत में होने वाली 2021 की यह जनगणना आजादी के बाद की आठवीं जनगणना होगी और देश की सोलहवीं जनगणना होगी।

मुद्दा जनगणना नहीं, जाति आधारित जनगणना है : 

सवाल यह है कि जनगणना जब इतना ही अपरिहार्य और जरूरी है, तो इस पर हाय-तौबा क्यों? वकालतों का लंबा सिलसिला क्यों? जवाब सिर्फ एक है और वह है राजनीतिक फायदा। मुद्दा जनगणना नहीं, जाति आधारित जनगणना है। जाति आधारित जनगणना की मांग हर जनगणना से पहले होती रही है। ऐसी मांग आमतौर पर ओबीसी और अन्य वंचित वर्गों के नेता करते हैं, जबकि उच्च जातियों के नेता इस विचार का विरोध करते रहे हैं। ये पहला मौका नहीं है जब देश में जाति आधारित जनगणना की मांग उठने लगी है। पिछली जनगणना 2011 के दौरान भी मुलायम सिंह यादव, लालू प्रसाद यादव और शरद यादव जैसे नेताओं ने ऐसी ही जनगणना की  मांग की थी। सपा प्रमुख अखिलेश यादव भी जाति आधारित जनगणना की मांग उठा चुके हैं। जानकार मानते हैं कि इस मुद्दे पर केंद्र सरकार संघ के रुख के हिसाब से आगे बढ़ना चाहती है।   

हाशिये पर वही, जिसके लिए जनगणना : 

असल बात तो यह है कि जनगणना जिसके फायदे के लिए कराई जाती है, वही हाशिये पर खड़ा नजर आता है। इतिहास इसका गवाह है। सन 1872 से लेकर 1951 से पहले तक भारत में जाति आधारित जनगणना होती थी और होने वाली सभी जनगणनाओं में नागरिकों से जाति से संबंधित आंकड़े पूछे जाते थे, परंतु 1941 की जनगणना के आंकड़े द्वितीय विश्वयुद्ध के कारण एकत्रित नहीं किए जा सके। स्वतंत्रता के बाद राष्ट्र के पंथनिरपेक्षता के परिप्रेक्ष्य में सरकार ने जनगणना में जाति से संबंधित आंकड़े एकत्र करना गलत बताया, क्योंकि स्वतंत्र भारत की राजनीति के लिए जातिवाद को समाप्त करना एक बड़ा सपना था।  

इस बार सब डिजिटल : 

2011 की जनगणना में पहली बार नागरिकों से जाति आधारित आंकड़े एकत्रित किए गए। यह स्वतंत्र भारत की सातवीं जनगणना थी। अब 24 दिसंबर 2019 को केंद्रीय मंत्रिमंडल ने जनगणना 2021 एवं राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर को अपडेट करने की मंजूरी दी है। भारत की यह सोलहवीं (आजादी के बाद की आठवीं) जनगणना कई मायनों में विशेष रहेगी। यह पूरी तरह से डिजिटल जनगणना होगी, जो कि मानवी त्रुटि रहित अर्थात लिपि की त्रुटि नहीं होगी। जनगणना के डिजिटल होने के कारण समय और श्रम की बचत होगी। किसी भी क्षेत्र में होने वाली डिजिटल जनगणना के आंकड़े बटन प्रेस करते ही सीधे दिल्ली पहुंच जाएंगे।  सभी आंकड़े डिजिटल रूप में एकत्रित किए जाएंगे। डिजिटल रूप से जनगणना करने के लिए सरकार के द्वारा एक विशेष मोबाइल ऐप तैयार किया जाएगा। डिजिटल जनगणना के चलते भ्रष्टाचार पर रोक लगेगी।

वास्तव में हासिल हो पाएगा ‘अभीष्ट’

किसी भी देश के लिए जनगणना एक अत्यंत महत्वपूर्ण प्रक्रिया होती है, जो देश के भूतकाल एवं वर्तमान के आधार पर एक सुनहरे भविष्य के लिए योजनाएं बनाने हेतु एक मजबूत आधार का कार्य करती है।  पूर्व में बनाई गई किसी विशेष वर्ग हेतु, विशेष योजनाएं कितनी प्रभावी रही, उन से कितना लाभ हुआ तथा वह कितनी सफल रही इत्यादि की जानकारी जनगणना के माध्यम से सटीकता से प्राप्त होती है, लेकिन पहले से ही कई सवाल अनुत्तरित हैं। पहला यह कि इस जनगणना से हमें क्या हासिल होने वाला है? क्या उन जातियों की पहचान और संख्या सामने आ सकेगी जिनकी अभी तक अलग से कोई सूची उपलब्ध नहीं है? क्या करोड़ों रुपए खर्च करने के बाद इस जनगणना से प्राप्त आंकड़े जातिगत विविधता प्रधान भारत के गरीबों और पिछड़ों के लिए नीति बनाने में सहायक होंगे? और अन्ततः क्या जात-पात की भेदभाव परक व्यवस्था कमजोर हो सकेगी? इन्हीं सवालों के चलते ‘‘समाजिक, आर्थिक व जाति जनगणना, 2021’’ की प्रक्रिया, प्रयुक्त माध्यम और परिणाम को लेकर जिज्ञासाएं भी हैं और उहापोह की स्थिति भी।

डर यह कि छलावा न साबित हो : 

यह जनगणना भी छलावा न साबित हो, इसका डर बना हुआ है, क्योंकि इस जनगणना से पिछड़ी और सामन्य जातियों के लोगों के बीच विभाजक रेखा नहीं खींची जा सकती। ऐसे में उन जातियों का क्या होगा, जिनका संबंध न तो सामान्य वर्ग से है और न ही अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति से। सरकार का तर्क है कि जाति आधारित जनगणना से खाद्य सुरक्षा का सही अनुमान लगाया जा सकता है। फिर एक-एक करके अन्य नीतियों के क्रियान्वयन में भी इस जनगणना की मदद ली जा सकेगी, ताकि कल्याणकारी योजनाओं का लाभ सही व्यक्ति और परिवार तक पहुंच सके। तब सरकार जातिगत जनगणना से क्यों डर रही है? ये सवाल विपक्ष लगातार सत्ता पक्ष से पूछ रहा है। उनका साथ एनडीए के कुछ सहयोगी दल भी दे रहे हैं। विशेषज्ञों का मानना है, "जनगणना में आदिवासी और दलितों के बारे में पूछा जाता है, बस ग़ैर दलित और ग़ैर आदिवासियों की जाति नहीं पूछी जाती है। इस वजह से आर्थिक और सामाजिक पिछड़ेपन के हिसाब से जिन लोगों के लिए सरकार नीतियां बनाती है, उससे पहले सरकार को ये पता होना चाहिए कि आख़िर उनकी जनसंख्या कितनी है। जातिगत जनगणना के अभाव में ये पता लगाना मुश्किल है कि सरकार की नीति और योजनाओं का लाभ सही जाति तक ठीक से पहुंच भी रहा है या नहीं।"

आरक्षण के सिरफुटौव्वल का डर : 

 मान लीजिए जातिगत जनगणना होती है तो अब तक की जानकारी में जो आंकड़े हैं, वो ऊपर नीचे होने की पूरी संभावना है। मान लीजिए ओबीसी की आबादी 52 प्रतिशत से घट कर 40 फ़ीसदी रह जाती है, तो हो सकता है कि राजनीतिक पार्टियों के ओबीसी नेता एकजुट हो कर कहें कि ये आंकड़े सही नहीं है। और मान लीजिए इनका प्रतिशत बढ़ कर 60 हो गया, तो कहा जा सकता है कि और आरक्षण चाहिए। सरकारें शायद इस बात से डरती हैं। चूंकि आदिवासियों और दलितों के आकलन में फ़ेरबदल होगा नहीं, क्योंकि वो हर जनगणना में गिने जाते ही हैं, ऐसे में जातिगत जनगणना में प्रतिशत में बढ़ने घटने की गुंज़ाइश अपर कास्ट और ओबीसी के लिए ही है। कहा जाता है, 'जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी'। अगर संख्या एक बार पता चल जाए और उस हिसाब से हिस्सेदारी दी जाने लगे, तो कम संख्या वालों का क्या होगा? उनके बारे में कौन सोचेगा? इस तरह के कई सवाल भी खड़े होंगे. ओबीसी और दलितों में ही बहुत सारी छोटी जातियां हैं, उनका कौन ध्यान रखेगा? बड़ी संख्या वाली जातियां आकर मांगेंगी कि 27 प्रतिशत के अंदर हमें 5 फ़ीसदी आरक्षण दे दो, तो बाक़ियों का क्या होगा?  

डर का कारण यह भी  : 

एक दूसरा डर भी है। ओबीसी की लिस्ट केंद्र की अलग है और कुछ राज्यों में अलग लिस्ट है। कुछ जातियां ऐसी हैं जिनकी राज्यों में गिनती ओबीसी में होती है, लेकिन केंद्र की लिस्ट में उनकी गिनती ओबीसी में नहीं होती। जैसे बिहार में बनिया ओबीसी हैं, लेकिन उत्तर प्रदेश में वो अपर कास्ट में आते हैं। वैसे ही जाटों का हाल है. हरियाणा, राजस्थान और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जाटों पर भी ओबीसी लिस्ट अलग है। ऐसे में बवाल बढ़ना तय है और डर का एक कारण यह भी है।  

राज्यों की अपनी चिंता : 

जाति आधारित जनगणना के लिए बिहार विधान मंडल और फिर बाद में बिहार विधानसभा में  सर्वसम्मति से एक प्रस्ताव पहले ही पारित हो चुका है। महाराष्ट्र विधानसभा में भी केंद्र सरकार से जाति आधारित जनगणना कराए जाने की मांग के प्रस्ताव को हरी झंडी मिल चुकी है। महाराष्ट्र, ओडिशा, बिहार और यूपी में कई राजनीतिक दलों की मांग है कि जाति आधारित जनगणना कराई जाए।     

कहीं पे निगाहें, कहीं पर निशाना : 

बिहार के मख्यमंत्री नीतीश कुमार ओबीसी को साधन के लिए ही जाति आधारित जनगणना की वकालत कर रहे हैं। नीतीश कुमार का कहना है कि जातिगत जनगणना सभी तबकों के विकास के लिए आवश्यक है। किस इलाके में किस जाति की कितनी संख्या है, जब यह पता चलेगा तभी उनके कल्याण के लिए ठीक ढंग से काम हो सकेगा। जाहिर है, जब किसी इलाके में एक खास जाति के होने का पता चलेगा तभी सियासी पार्टियां उसी हिसाब से मुद्दों और उम्मीदवारों के चयन से लेकर अपनी तमाम रणनीतियां बना सकेंगी। दूसरी तरफ सही संख्या पता चलने से सरकारी नौकरियों और शिक्षण संस्थाओं में उन्हें उचित प्रतिनिधित्व देने का रास्ता साफ हो सकेगा। मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू होने के बाद अभी ओबीसी के लिए 27 फीसदी आरक्षण का प्रावधान है।

इस ‘जाति’ ने लोकतंत्र के हर नब्ज को जकड़ रखा है : 

खींचतान जारी है। दलों की अपनी चिंता है और सरकार की अपनी। जनता ही तमाशबीन बन गई है। इस बार की जनगणना वास्तव में जन, गण और मन को संतुष्ट कर पाती है या नहीं, यह तो आने वाला समय ही बताएगा, पर इतना तय है कि इसी ‘जाति’ ने लोकतंत्र के हर नब्ज को जकड़ कर रखा है। देश भर से आने वाली दलित उत्पीड़न की खबरें बताती हैं कि दावा चाहे जो भी हो, लेकिन समाज में ऐसी कोई समरसता हो नहीं पाई है।

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