रविवार, 31 अक्तूबर 2010
नकाब में घिनौना चेहरा
बाजारू व्यक्तित्व के धनी लोगों के पास अपना अहम, अपना आत्मसम्मान नहीं होता। कोई सिद्धांत नहीं होता। सही या गलत के बीच फर्क का विवेक नहीं होता। मुख्यधारा हो गयी है, धन की भूख। धन पाने की, हड़पने की, चुराने की, घूस खाने की। इसी होड़ में फंसा है देश-समाज। इसके लिए आत्मसम्मान, विवेक, चरित्र सब दांव पर लगाने के लिए लोग तैयार हैं। और जहां धन है, वहां समाज के सभी ताकतवर अंग एकजुट हैं। क्यों लगातार भारत के धनी और ताकतवर कानून से बाहर जा रहे हैं? क्यों इस देश का कानून सिर्फ उनके लिए रह गया है, जो संविधान में यकीन करते हैं? नि:संदेह लालच अब एक नया धर्म बन चुका है। उसके अलावा अब और कुछ पवित्र नहीं रह गया है- न अफसरशाही के सर्वोच्च दफ्तर, न मुख्यमंत्री, न सेना प्रमुख और न ही शीर्ष नौकरशाह, जिनसे होकर फाइलें गुजरती हैं। अगर युद्ध में जान गंवाने वाले सैनिकों की विधवाओं के लिए हाउसिंग सोसायटी में स्वीकृत फ्लैटों को चुराना हो, तो इनमें से हर कोई कारगिल के शहीदों के खून के साथ दगाबाजी करने को तैयार हो जाएगा। शर्म नाम की कोई चीज नहीं रह गई है। लालच हमेशा पाखंड के पर्दे के पीछे पनपता है। लोकतंत्र में पाखंड एक बड़ा प्रलोभन है, क्योंकि समझौतों की शुरुआत हमेशा यथार्थवाद या सेवा के नाम पर होती है। चुनाव में होने वाले वास्तविक खर्च और आधिकारिक रूप से स्वीकृत धनराशि के बीच का फासला ही भ्रष्टाचार का सबसे अहम औजार है, क्योंकि तब अवैध 'खैरातÓ लेने को भी न्यायोचित करार दिया जा सकता है। घूस के लिए खैरात एक शिष्ट मुहावरा है। कारगिल के शहीदों की अमानत पर डाका डालने वाले अफसरों की फेहरिस्त हमें शर्मिदा कर देने के लिए काफी है। इनके लिए तो यह एक लॉटरी थी। 'आदर्शÓ बिल्डिंग सोसायटी में शहीदों की विधवाओं के लिए स्वीकृत फ्लैटों को आपस में बांट लेने वालों को भ्रष्टाचार का दोषी नहीं ठहराया जाना चाहिए, उन पर देशद्रोह का मुकदमा चलाया जाना चाहिए। हमारे तंत्र को लगता है कि वह किसी भी तरह के जनाक्रोश को मजे से हजम कर सकता है। कॉमनवेल्थ खेलों में जनता के पैसों के साथ जो घिनौना बलात्कार हुआ, उसके लिए सुरेश कलमाड़ी को आधिकारिक रूप से कुर्बानी के लिए नामांकित किया गया था। शायद 'आदर्शÓ के कारण महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण को भी इस्तीफा देना पड़े, बशर्ते वे दिल्ली में बैठे अपने आकाओं को यह धमकी देते हुए ब्लैकमेल न करने लगें कि वे उस रकम का खुलासा कर देंगे, जो उन तक पहुंचाई जाती रही है। दिल्ली में बैठे चतुरसुजानों ने हमें मूर्ख बनाया है। अशोक चव्हाण उस दिन भ्रष्ट नहीं हुए थे, जिस दिन मीडिया ने यह खुलासा किया कि उन्होंने न केवल कारगिल के नायकों के साथ धोखाधड़ी करने के लिए संदर्भ शर्तो को बदल दिया था और फिर बड़े आराम से अपने कुनबे के लिए उनके हिस्से के चार फ्लैट चुरा लिए थे। वे उसी दिन से भ्रष्ट थे, जब उन्हें महाराष्ट्र सरकार में मंत्री बनाया गया। उन्हें मुख्यमंत्री के रूप में इसलिए नहीं पदोन्नत किया गया, क्योंकि वे योग्य थे, बल्कि इसलिए क्योंकि उन्हें पता था कि कांग्रेस में आगे बढऩे का फॉर्मूला है वफादारी और भ्रष्टाचार का घालमेल। खुलासा होने पर अगर दिल्ली ने चेहरे पर नकाब ओढ़ लिया है तो इसकी वजह यह है कि मामले को टालने का यही एक तरीका उसे पता है। घोटालों के भारत और झुग्गियों के भारत के बीच के फासले को अखबार रोज मापते हैं, लेकिन हम अपनी सहूलियत के चलते उस पर गौर नहीं करते। यही आधे भारत का मुकद्दर है। दूसरी ओर कुछ लोग राष्ट्रीय संपत्ति को लूटते रहेंगे। जो इनके बीच में हैं, वे अपने सपनों और असुरक्षाओं की गिरफ्त में बने रहेंगे।
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