रविवार, 31 अक्तूबर 2010

बयानों के चुभते तीर

बयानों के चुभते तीरों से लोकतंत्र छलनी हो चला है। कद-पद की परवाह किसी को नहीं। दूसरों पर थूकने की प्रवृति खासकर नेताओं में इतनी बढ़ गई है कि थूक अपने चेहरे पर ही गिर रहा है या दूसरे के , होश ही नहीं। तब एक बड़ा सवाल यह है कि क्या हमारा लोकतंत्र मजबूत हो रहा है। नि:संदेह नहीं। हम आज खुद को विश्व में सबसे बड़े और सबसे मजबूत लोकतंत्र वाले देश के नागरिक के तौर पर प्रचारित कर रहे हैं, लेकिन लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं व परंपराओं का किया जा रहा उल्लंघन आज चिंता का विषय है। एक समय इंदिरा गांधी को गूंगी गुडिय़ा कहकर चिढ़ाया जाता था, लेकिन बाद में उन्होंने साबित किया कि वास्तविकता क्या थी? राजनीतिक टकरावों को व्यक्तिगत अहम का मुद्दा मान लेने से ही इस तरह की घटनाएं सामने आती हैं। हमारे प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू और डॉ. राम मनोहर लोहिया में भी तीव्र मतभेद थे, लेकिन उन्होंने कभी भी व्यक्तिगत आरोप-प्रत्यारोप नहीं लगाए और न ही कभी किसी तरह का अपशब्द कहा। ऐसा न तो सार्वजनिक जीवन में हुआ और न ही व्यक्तिगत जीवन में सुनने को मिला। इससे यही समझ आता है कि आज के राजनेता बहुत जल्दी में है और बिना जनसेवा के आरोप-प्रत्यारोप लगाकर जनता में एक तरह का उन्माद पैदा करके लाभ पाना चाहते हैं। जब नेताओं के पास जनता के विकास और उनकी खुशहाली के लिए कोई उपाय नहीं रह जाता तो वे इस तरह की बातों से लोगों को घुमाने की कोशिश करते ही हैं। हमारे राजनेता देश को दिशा देते हैं और उनके द्वारा बताए गए और अपनाए गए तौर तरीकों को आम लोग भी अपने जीवन में दुहराते हैं। तो क्या अब हमारे राजनेता देश को यही संदेश दे रहे हैं कि दूसरे की मान-मर्यादा की परवाह करने की बजाय अपने हितों को पूरा करने के लिए कुछ भी करना जायज है। राजनीति में सार्वजनिक मंचों से एक-दूसरे के प्रति अपशब्दों का प्रयोग इसी मानसिकता का प्रतिफल है। इस तरह की घटनाओं को रोकने के लिए सभी दलों के नेताओं को मिल-बैठकर एक आचार संहिता बनानी चाहिए, क्योंकि यह एक राजनीतिक समस्या है। चुनाव आयोग को ऐसे संगीन मसलों पर जागरूक होने की जरूरत है ताकि ऐसे लोगों को जनता को बरगलाने से रोका जा सके। हमारे संविधान में सभी नागरिकों को अभिव्यक्ति की आजादी का अधिकार दिया गया है, लेकिन यह स्वतंत्रता असीमित नहीं है। दूसरे व्यक्ति की गरिमा और स्वतंत्रता, सम्मान को ठेस पहुंचाने वाली अभिव्यक्ति पर रोक लगाई जा सकती है और ऐसे लोगों को दंडित किया जा सकता है। एक लंबे अरसे से विधायिका और संसद में असंसदीय भाषा और व्यवहार पर रोक लगाने के लिए उचित तरीके खोजने की बात की जाती रही है। सांसदों-विधायकों द्वारा सदन के भीतर खुलेआम गाली-गलौज, हाथापाई और मारपीट की घटनाएं आखिर कब तक चलती रहेंगी। यदि समय रहते इस तरह की प्रवृत्ति पर रोक नहीं लगाई जाती है तो ऐसी घटनाओं की बार-बार दुहराई जाएंगी और हमारा लोकतंत्र लहूलुहान होता रहेगा। अब समय आ गया है जबकि इस दिशा में सरकार पहल करे और राजनीतिक विद्धेषों को व्यक्तिगत रंजिश बनाने से रोके। युद्ध और प्यार में सब कुछ जायज है की तर्ज पर आज राजनीति में भी सब कुछ सही है को सूत्रवाक्य मान लिया गया है। इसी प्रवृत्ति का नतीजा है कि आए दिन अपशब्दों और दोअर्थाी बातें सार्वजनिक तौर पर भी कहने से राजनेता नहीं डर रहे। संसद और विधायिका में जिस तरह जनप्रतिनिधियों का आचरण देखने को मिलता है, वह हमारे लोकतंत्र के विकृत होते स्वरूप का आभास देता है। इस संदर्भ में यदि हम वर्तमान में बिहार में हो रहे चुनावों को देखें तो कुछ भी अलग नहीं है। बात चाहे शरद यादव की हो, लालू प्रसाद, नीतीश कुमार की हो या अन्य राष्ट्रीय स्तर के नेताओं की हो, कमोबेश सभी इस रोग के शिकार दिखते हैं।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें