अभी तक जो बात देखने में आई है कि वह यह है कि सोनिया गांधी के चित्रण करने वाली फिल्मों, पुस्तकों और कार्टूनों को लेकर कांग्रेस के नेता और अधिकारी बहुत ही सतर्क और सावधान रहे हैं कि कोई भी नकारात्मक बात न सामने आने पाए। मोरो भले ही न जानते , लेकिन हकीकत है कि महात्मा गाँधी के देश में देश की सबसे बड़ी और पुरानी पार्टी को जिस व्यक्ति के नाम और उसकी छवि के आधार पर वोट मिलते हों वह अपनी पार्टी के नेता के बारे में कोई भी नकारात्मक बात सहन नहीं कर सकती है। यह तो सभी जानते हैं कि वर्षों तक कांग्रेस को पर्दे के पीछे से चलाने वाली सोनिया ने हाल के कुछ वर्षों में ही सार्वजनिक और राजनीतिक जीवन में अधिक सक्रियता से भाग लेना शुरू किया है। इसलिए संभव है कि कांग्रेस पार्टी के कुछ तत्व ब्रांड सोनिया के खिलाफ किसी भी प्रकार के चित्रण को आपत्तिजनक मानें। 'द रेड सारीÓ अर्थात, लाल साड़ी (स्पेनिश नाम- एल सारी रोजो) क्या आतंक की एक दस्तान है? फिर कांग्रेस पार्टी इतनी आतंकित क्यों है? जेविएर मोरो की यह वह ताजा पुस्तक है, जिसने कांग्रेस के भीतर आतंक की लहर सी छेड़ दी है। पुस्तक में कांग्रेसियों को सत्ता का भूखा बताया गया है। पुस्तक तमसो मा ज्योतिर्गमय, मृत्योर्मा अमृतंगमय उपनिषद वाक्य से शुरू की गई है। इसके बाद कहानी शुरू होती है 24 मई 1991 के दिन से, जब राजीव गांधी का अंतिम संस्कार किया जा रहा था। किताब के टाइटल में जिस लाल साड़ी का जिक्र है, उसे लेखक के मुताबिक पंडित नेहरू ने जेल में बुना था और सोनिया ने अपनी शादी के दिन पहना था। यह कहानी है, इटली के एक छोटे से गांव में पैदा हुई लड़की के हैरतअंगेज सफर की जिसे पावर तो मिली, लेकिन मौतों के सिलसिले से गुजरकर। किताब का सब-टाइटल है- लाइफ इज द प्राइस ऑफ पावर यानी ताकत की कीमत है जिंदगी। इस केस की अगुआई कर रहे सीनियर वकील और कांग्रेस प्रवक्ता अभिषेक मनु सिंघवी और उनके सहयोगियों का कहना है कि किताब में बेमतलब के और मनगढ़ंत किस्से रचे गए हैं। सब कुछ ऐसे पेश किया गया है, जैसे वाकई हुआ हो। मोरो इसे बायोग्राफी बताकर बेच रहे हैं, जिससे गलत इमेज बनती है। किताब में संजय गांधी को गालियां बकते और सोनिया को राजीव की मौत के बाद इटली चले जाने की सोचते दिखाया गया है। न सिर्फ यह किताब झूठ का पुलिंदा है, बल्कि इसे सच बताकर पेश किया गया है। मामला नेहरू-गांधी फैमिली की इज्जत से खिलवाड़ का बनता है। लाल साड़ी ही क्यों?राजीव की हत्या के बाद जब सोनिया ने कांग्रेस अध्यक्ष का पद ठुकरा दिया तो कांग्रेसी नेता उनके पास गए और उनके घर में लगी उनकी एक तस्वीर की तरफ इशारा किया। सोनिया जी, इस फोटो को देखो। देखो ये लाल साड़ी, जो आपने शादी के दिन पहनी थी, इसे पंडित जवाहरलाल नेहरू ने चरखे पर कातकर तैयार किया था। इसी संदर्भ को उठाते हुए लेखक ने पुस्तक का नाम लाल साड़ी (द रेड सारी) रखा। इस पर सोनिया ने जवाब दिया -हां, लेकिन यह मत भूलो कि मैं एक विदेशी हूं। इस पर कांग्रेसी नेताओं ने तर्क दिया-मैडम, आप ऐनी बिसेंट को याद कीजिए। कांग्रेस की प्रमुख नेता। उन्होंने पार्टी का नेतृत्व राष्ट्रीय स्तर पर किया था। वे आयरिश थीं। आप इटली की हैं तो क्या हुआ? विचार बुरा नहीं है। लेकिन सोनिया बोलीं : आई एम सॉरी। आप गलत दरवाजा खटखटा रहे हैं।
विवाद इन अंशों पर :एक पुजारी ने सोनिया को राजीव गांधी के अंतिम संस्कार में शामिल होने से यह कहकर रोक दिया था कि विधवाओं को ऐसे में दूर रहना होता है। और फिर वे तो दूसरे धर्म की हैं। सोनिया जब पहली बार राजीव के साथ भारत आईं तो वे यह जानकर हैरान रह गईं कि इस देश में सती प्रथा जैसी बर्बर कुरीतियां हैं। राजीव की हत्या के तत्काल बाद सोनिया ने अपनी बहन अनुष्का से आशंका जताई कि यह कुकृत्य इंदिरा के हत्यारे सिखों, गांधीजी की हत्या करने वाले हिंदू कट्टरपंथियों या कश्मीर के मुस्लिम अतिवादियों जैसों में से किसी का हो सकता है।सोनिया ने राजीव गांधी को प्रधानमंत्री पद से हटने के बाद सुरक्षा कम किए जाने पर बेहतर सुरक्षा के लिए दबाव बनाया तो राजीव बोले-अगर वे तुम्हें मारना ही चाहते हैं तो मारकर ही रहेंगे। राजीव की हत्या के तत्काल बाद सोनिया की मां ने फोन करके उन्हें कहा-बेटी तुम्हें इटली वापस लौट आना चाहिए। सोनिया खुद भी सोचने लगीं थी कि अब यहां रुकने का मतलब ही क्या है? -राजीव गांधी सुरक्षा को लेकर पहले ही चिंतित थे। एक बार उन्होंने बच्चों को मास्को के अमेरिकन स्कूल में भर्ती कराने का फैसला कर लिया था, लेकिन सोनिया बच्चों को अपने पास ही रखना चाहती थीं। -सोनिया ने कांग्रेसी नेताओं को फटकारा था -ये तो इंदिरा गांधी दबाव नहीं डालतीं तो राजीव भी राजनीति में नहीं आते। वे पायलट ही अच्छे थे। ऐसा होता तो आज वे हमारे बीच होते। -कांग्रेसी नेताओं ने उन्हें अध्यक्ष पद के लिए बार-बार जिम्मेदारी के लिए कहा तो सोनिया बोलीं-जिम्मेदारी? इस परिवार को ही बार-बार अपना खून देकर इस देश के लिए अपनी जिम्मेदारी क्यों निभानी चाहिए? क्या आपका दिल इंदिरा और राजीव के खून से भी नहीं भरा है? क्या अभी आप और भी चाहते हैं? कांग्रेसी नेता-आप ही भारत हैं। आपके परिवार के बिना हम कुछ भी नहीं। आपके ही हाथों में आज गांधी-नेहरू का वो दीपक है, जो देश को अंधेरे में रोशनी दिखा सकता है। कांग्रेसी नेताओं पर तीखे कटाक्षकांग्रेसी नेताओं ने सोनिया के दुख की घड़ी में भी ये नहीं सोचा कि उनके सीने में एक इनसान का दिल धड़क रहा है। उन्होंने बिना एक क्षण भी विलंब किए, सोनिया के जरिए अपने व्यक्तिगत सत्ता को सुरक्षित करने की चिंता की। -भारत में सत्ता ऐसा चुंबक है, जिससे बचना किसी के लिए संभव नहीं। कांग्रेसी नेता इतने चालाक निकले कि उन्होंने सोचा तारीफों के जरिए सोनिया गांधी अंतत: मान ही जाएंगी। अपने लिए न सही, अपने बच्चों के लिए और अपने गांधी-नेहरू परिवार के नाम के लिए। -सोनिया गांधी बचपन से ही दमे की मरीज है। उन्होंने अपने कुत्ते का नाम स्टालिन रखा था। -सोनिया की मां पाओला एक पुलिस वाले की बेटी हैं और वे अपने दादा का बार संचालित करती थीं।———————————- एक इत्तिफाकन गांधी वो शख्सियत जिसने ऐसी पार्टी में जान फूंकी जिसे खुद पार्टी के ही लोग खत्म हुआ मान चुके थे। जो ये माने बैठे थे कि अब कांग्रेस का पुनर्जन्म मुश्किल है। इटली के एक मध्यवर्गीय परिवार की लड़की, जो दुनिया के सबसे अस्थिर लोकतंत्र के साथ कदमताल कर रही है। बेटी प्रियंका गांधी कहती हैं-मुझे अपनी मां में हुए कायापलट पर ताज्जुब होता है। सोनिया गांधी के हिंदुस्तान की ग्रैंड ओल्ड पार्टी में शुरुआती कदम बेहद मुश्किल भरे रहे। देश के पहले परिवार के बतौर उन्हें सत्ता के विशेषाधिकार से जरूर नवाजा गया लेकिन निजी तौर पर वो हमेशा किसी न किसी पारिवारिक ट्रेजडी से ही दो-चार होती रहीं। उनके पास कुछ नहीं था-न भाषा और न जनाधार। था तो बस सरनेम गांधी का ताबीज और घर के दरवाजे पर बढ़ती घोर निराशा की लहर। 11 साल बाद अब ये तूफान थम गया है। पार्टी बेशक अपनी रफ्तार कायम न रख सकी लेकिन सोनिया आगे बढ़ गईं। 2009 के लोकसभा चुनाव की सुगबुगाहट शुरू ही हुई थी कि सोनिया ने सीधे दुश्मन के कैंप पर हमला बोला। ये सीधा हमला था भाजपा के प्राइम मिनिस्टर इन वेटिंग पर। हमला भी वहां जहां दुश्मन को सबसे ज्यादा चोट पहुंचती है। कंधार मामले पर उन्होंने आडवाणी को घेरा। वैसे उनका फोकस इस देश का आम आदमी रहा। संप्रग सरकार का पांच साल का रिपोर्ट कार्ड और उससे पहले राजग का शासन। वो इस दौर में आक्रामक और हमलावर रही हैं। सोनिया ने इस बार अपना अतीत याद दिलाने और परिवार की विरासत सामने रखने का फैसला कर लिया है। भारत के साथ सफरनामा :सोनिया एंटोनिया मायनो का इस देश से रिश्ता एक रोमांस से शुरू हुआ था। आज ये रिश्ता पूरी तरह राजनीतिक थ्रिलर में तब्दील हो चुका है। तीन बेटियों में दूसरी सोनिया पाओला और स्टेफानो के घर इटली के ट्यूरिन शहर के बाहरी इलाके ओरबैसानो में पैदा हुई थीं। पिता ने बेटियों को बिल्कुल पारंपरिक ढंग से पाला पोसा। चर्च, कन्फर्मेशन और कम्यूनियन। रोकटोक के बावजूद सोनिया को याद है कि मेरे पिता आधुनिक सोच रखते थे और मुझे विदेश में पढऩे की इजाजत मिल गई। इसके बाद मैंने मैजिनी और गैरीबाल्डी को पढ़ा और इटली के एक होने की जानकारी हासिल की लेकिन आधुनिक देश के बतौर भारत के उदय के बारे में मुझे कुछ नहीं पता था। शायद सोनिया की किस्मत में हिंदुस्तान की खोज किसी और ढंग से होनी लिखी थी। कैंब्रिज के एक ग्रीक रेस्टोरेंट वार्सिटी में दोपहर को छात्र खाने-पीने पहुंचते थे। वार्सिटी का मालिक चार्ल्स एंटोनी राजीव का गहरा दोस्त था। कुछ साल बाद उसकी आंखों की रोशनी चली गई पर उसे वो दिन याद है जब लेनॉक्स कुक स्कूल की छात्रा सोनिया उसके रेस्टोरेंट में पहुंची थी। चाल्र्स एंटोनी बताते हैं कि एक दिन सोनिया आईं, वो अकेली थीं। ये लंच का वक्त था और मेरे पास उसे बैठाने के लिए कोई जगह नहीं थी। राजीव अपने दोस्त एलेक्सिस के इंतजार में राउंड टेबल पर अकेले बैठे थे सो मैंने राजीव से पूछा कि तुम्हें किसी दूसरे और एक लड़की के साथ बैठने में ऐतराज तो नहीं। राजीव ने कहा-नहीं, बिल्कुल नहीं। आपको यकीन नहीं आएगा लेकिन उन्हें एक दूसरे से प्यार हो गया। वो भी इस तरह कि उन्हें अलग नहीं किया जा सकता था। मैं इसके लिए राजीव को दोष नहीं देता। वो खुद ही इतनी सुंदर थीं। एक साल बाद राजीव प्रधानमंत्री बने, तो चाल्र्स उनसे मिलने दिल्ली पहुंचे लेकिन उन्हें नई दिल्ली एयरपोर्ट पर ही रोक लिया गया क्योंकि उनके पास भारतीय वीजा नहीं था। इसके बाद बस एक फोन आया और चाल्र्स ने रेसकोर्स रोड का रुख किया। चाल्र्स के मुताबिक-मुझे नहीं पता था कि गांधी के दोस्त को भी वीजा की जरूरत होगी। 13 जनवरी 1968 को सोनिया दिल्ली पहुंचीं। 12 दिन बाद उनकी राजीव से शादी हो गई। सोनिया के पिता ने इस समारोह में हिस्सा नहीं लिया। नयनतारा सहगल बताती हैं कि मुझे उनकी पहली याद तब की है जब इंदिरा ने मेरी मां को बुलाया और कहा -फूफी, राजीव एक इटैलियन लड़की से प्यार करता है तो मेरी मां ने कहा— ये तो बहुत अच्छी बात है। हम उससे कब मिलेंगे। जब वो भारत से गईं तो मैं उनसे पहली बार तब मिली जब उनकी मेहंदी की रस्म थी। तब वो बच्चन परिवार के साथ थीं और वहीं उनकी मेहंदी रस्म रखी गई थी। उनके पैरों और हाथों पर मेहंदी रचाई गई और इसके बाद हमने साथ खाना खाया। सोनिया और राजीव ने जो जिंदगी चुनी थी वो उनकी निजी जिंदगी थी। दोनों के चारों तरफ ऐसे लोग थे जिनके लिए विचारधारा, विश्वास और शासन जैसी चीजें रोजमर्रा की बातें थीं। सोनिया को अचानक लोगों के सामने न आना और गलत बातों पर एकदम न बोलना सीखना पड़ा। अपनी सास से उनका रिश्ता प्यार, धीरज और साझेदारी का था लेकिन सोनिया ने इंदिरा के साथ कभी एक चीज की साझेदारी नहीं की और वो थी राजनीति। सोनिया और राजीव की जिंदगी के शुरुआती 13 साल कई सियासी उतार-चढ़ावों से होकर गुजरे क्योंकि पूरा परिवार एक के बाद एक दुखद घटनाओं से जूझ रहा था। पहले विमान दुर्घटना में संजय गांधी की मौत, उसके बाद इंदिरा गांधी की हत्या और सात साल बाद खुद राजीव गांधी की हत्या। हर बार सोनिया को शिद्दत से ये अहसास हो रहा था कि ये राजनीति ही थी जो राजीव और उनकी जिंदगी की दुश्मन साबित हुई थी। पर विकल्प कोई नहीं था। बाद के सालों ने दिखाया कि विदेश में पैदा हुई ये गांधी अपनी जिंदगी और इस देश की सियासत की किताब नए सिरे से लिखने को तैयार हो रही थी। उनकी भावना की तुलना बाद में उन्हें मिली फतह से की जा सकती है। साल 2004 में भाजपा ने सोनिया की ताकत को अनदेखा किया था और अब भाजपा के सामने ही सोनिया एक खास अंदाज में अपने लिए लिखे भाषण पढ़कर उस भारत तक पहुंच रही थीं जो उतना चमकदार नहीं था जितना दावा किया जा रहा था। सोनिया की लगातार एक ही कोशिश थी कि कांग्रेस को सरकार बनाने के लिए सहयोगी मिल जाएं। पुराने दुश्मन अब दोस्त का दर्जा पा गए थे। कुछ जातियों और समुदायों में सोनिया ने भी अपनी पैठ बना ली थी अचानक सोनिया करुणानिधि, वायको, लालू और पासवान जैसे नेताओं की भी पसंद बन गई थीं। रशिद किदवई बताते है कि वो कोई डील नहीं कर रही थीं। उनके पास जो था वो बस उनकी ईमानदारी थी। हरकिशन सिंह सुरजीत से उनकी काफी बनती थी। एक बार वो सुरजीत के घर भी गई थीं। गर्मियों के दिन थे। सुरजीत ने कहा कि उनके घर में अंदर के कमरे में एक एयरकंडिश्नर है तो क्या तुम अंदर जा सकती हो और सोनिया तुरंत चली गईं। जिस कुर्सी पर वो बैठीं वो टूटी हुई थी। सोनिया ने उस पर तकिया रखा और बैठकर बातचीत करती रहीं। तब से सुरजीत से सोनिया की अच्छी दोस्ती हो गई और याद रखें कि ये कोई राजनीतिक दोस्ती नहीं थी, जिसके लिए वो पांच साल से मोलतोल कर रही थीं। 2004 चुनावों ने दिखाया कि दांव पर क्या लगा था। कांग्रेस का अस्तित्व ही नहीं बल्कि भारत की राजनीति में शायद एक गांधी की औकात भी दांव पर लगी थी। देश ने कांग्रेस को चुना और कांग्रेस ने सोनिया को और सोनिया ने उस शख्स को चुना जो सियासतदान कम था वफादार ज्यादा। उनके घर के बाहर कांग्रेसियों का हुजूम लग गया। पर सोनिया की तरफ से न हो चुकी थी। सोनिया के त्याग की कहानी देशभर में टेलीकास्ट हुई। सत्ता त्यागकर सोनिया और भी ताकतवर बन गई थीं। कांग्रेसियों की चापलूसी ने सारी हदें पार कर दीं। उन्होंने उनकी मिन्नतें कीं। उनके सामने रोए-गिड़गिड़ाए भी। सरकार में पार्टी के सहयोगियों ने भी उनके आगे हाथ जोड़े। यहां तक कि भाजपा ने भी माना कि ये सोनिया का मास्टरस्ट्रोक था। ये उस नेता की कामयाबी थी, जिसे 1999 में सियासत का नौसिखिया कहा जाता था। राष्ट्रपति भवन के सामने कभी न भूलने वाली वो प्रेस कांफ्रेंस जब सोनिया ने जादुई आंकड़ों का ऐलान किया और कहा कि हमें यकीन है कि हमें 272 सीटें मिलेंगी। चुनाव अभियान का कर्ताधर्ता गलती कर सकता था, पर संसद में पार्टी प्रमुख के लिए कोई गुंजाइश नहीं थी। पता चला कि आंकड़ा 272 तक नहीं पहुंच पाया और 40 कम है तो चुनाव मजबूरी बन गए और सोनिया ने पाया कि उनके लिए अब अपनी छवि बनाए रखना बहुत जरूरी था। सोनिया से दोबारा गलती नहीं हुई। अब उन्होंने अपनी हर रुकावट को अपने फायदे में बदलना शुरू कर दिया। इस हद तक कि उनके विरोधी भी चौंक जाते थे। राष्ट्रपति चुनाव, लाभ के पद के संकट और न्यूक्लियर करार पर तकरार जैसे जोखिम से गुजरकर सोनिया सत्ता में भागीदारी की कला अच्छी तरह जान गई थीं। एक सर्वशक्तिमान नेता और एक आज्ञाकारी प्रधानमंत्री के गठबंधन ने सत्ता में भागीदारी की नई परंपरा को जन्म दिया। सोनिया पार्टी के लिए जिम्मेदार थीं तो मनमोहन सरकार के लिए। ऐसी हिस्सेदारी पहले नहीं देखी गई थी फिर भी बहुत से लोग कहते हैं कि सत्ता सिर्फ सोनिया के पास ही रहती है। सोनिया ने बार-बार सरकार का फोकस आम आदमी की तरफ मोडऩे की कोशिश की। राष्ट्रीय रोजगार गारंटी योजना, सूचना का अधिकार अधिनियम ये सभी तब आए जब 2006 तक वो नेशनल एडवाइजरी काउंसिल की अध्यक्ष थीं। नि:संदेह सोनिया ने पार्टी को फिर से खड़ा करने में जो भूमिका निभाई, इतिहास उसके लिए ही उन्हें याद करेगा।
——————————— क्या कहना है मोरो का मोरो का दावा है कि यह एक उपन्यास है, हिस्ट्री नहीं। उनका कहना है कि कांग्रेस तो चाहेगी कि सोनिया को दिल्ली में पैदा हुई ब्राह्मण बताया जाए। क्या कहा , सोनिया ? इमर्जेंसी के दिनों में किस्सा कुर्सी का बनाकर सरकार का डंडा खा चुके जगमोहन मूंदड़ा का इरादा सोनिया पर इसी नाम से फिल्म बनाने का था। सोनिया के रोल के लिए इटैलियन ऐ क्ट्रेस मोनिका बलुची को साइन भी कर लिया गया था। फिर मूंदड़ा ने सोनिया से मुलाकात की और कुछ ही दिन बाद उन्हें सिंघवी का नोटिस मिल गया। कई बरस हो गए , इस फिल्म का जिक्र नहीं हुआ। नई मदर इंडिया फिल्मकार कृष्णा शाह का इरादा इंदिरा गांधी पर एक फिल्म बनाने का है। इसका नाम होगा - मदर: द इंदिरा गांधी स्टोरी। कहते हैं कि शाह ने इंदिरा के रोल के लिए माधुरी दीक्षित से बात की , लेकिन माधुरी ने क्या कहा , यह किसी को नहीं पता। इस फिल्म को 2011 में रिलीज करने की बात थी , लेकिन कौन जानता है क्या हंगामा खड़ा हो जाए। हुए बिना रह जाए, ऐसा तो नहीं हो सकता। हॉट समर फिल्मकार जो राइट ने इंडियन समर नाम से फिल्म बनाने की तैयारी लगभग पूरी कर ली थी। यह भारत के आखिरी गवर्नर जनरल लॉर्ड माउंटबेटन और उनकी पत्नी ऐ डविना की कहानी है। ऐ डविना से पंडित नेहरू के लव अफेयर का जिक्र भी इसमें होता , लिहाजा भारत सरकार को शक हुआ। उसने फिल्म की स्क्रिप्ट मांगी। फिलहाल यह प्रॉजेक्ट अटका पड़ा है। केट ब्लेंशेट को इसमें ऐ डविना का रोल करना था। ——————————— अभिव्यक्ति की आजादी छीन रही है कांग्रेस :भाजपाभाजपा ने कांग्रेस की इसलिए निंदा की है, क्योंकि कांग्रेस ने स्पेनिश लेखक जेवियर मोरो की सोनिया पर लिखी काल्पनिक विचारों वाली पुस्तक की आलोचना की है। भाजपा का आरोप है कि सत्ताधारी पार्टी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर रोक लगा रही है। भाजपा के मुख्य प्रवक्ता रविशंकर प्रसाद ने मोरो की किताब के विषयवस्तु पर टिप्पणी से इनकार करते हुए कहा कि पूरा घटनाक्रम अलग-थलग करके नहीं देखा जा सकता। कांग्रेस को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का सम्मान करना चाहिए। भाजपा का कहना है कि इस तरह की सेंशरशिप सत्तर के दशक में लगे आपातकाल की याद दिलाते हैं जबकि श्रीमती इंदिरा गाँधी सत्ता में थीं। उस समय कथित तौर पर जिन पुस्तकों, फिल्मों और समाचार पत्रों को सरकार विरोधी माना जाता था उन पर सरकार का चाबुक चला था। हालांकि राजनीतिक समीक्षक मानते हैं कि ऐसे मामलों में सोनिया गाँधी को उतना सख्त नहीं माना जाता है जितनी कि उनकी सास हुआ करती थीं लेकिन कांग्रेस पार्टी अपने नेताओं की छवि को लेकर बहुत अधिक संवेदनशील रहती है जिसे कुछ लोग चापलूसी की संस्कृति भी कहते हैं। ———————- मोरो को कानूनी नोटिस :इस संदर्भ में गौरतलब होगा कि कांग्रेस के सांसद और पार्टी के कानूनी और मानवाधिकार प्रकोष्ठ के प्रमुख अभिषेक मनु सिंघवी ने जेवियर मोरो को कानूनी नोटिस भेजा है जिनका कहना है कि कांग्रेस पार्टी और इसके नेता भारतीय प्रकाशन कंपनियों पर दबाव डाल रहे हैं कि वे मोरो की किताब का अंग्रेजी अनुवाद न छापें। उनका दावा है कि उन्होंने सोनिया के जीवन का काल्पनिक लेखा जोखा लिखा है और इसका यह मतलब नहीं है? कि किताब में लिखी सारी बातें सच हों लेकिन संघवी और कांग्रेस नेताओं का कहना है कि एक जीवित व्यक्ति पर काल्पनिक जीवनी एक विरोधाभास भी पैदा कर सकता है क्योंकि इसमें झूठी बातें, अपमानजनक टिप्पणियाँ भी की जा सकती हैं और चूँकि यह संबंधित व्यक्ति की सहमति और अधिकार के लिखी गई है ?इसलिए इसमें गलत और अपमानजनक तथ्यों का समावेश हो सकता है। ———————याद आया गुजरा जमाना : इन दिनों पैतीस साल पुरानी घटनाएं फिर याद आने लगी है। 1975 में महान लेखक कमलेश्वर की कहानी काली आंधी पर गुलजार ने एक फिल्म बनाई थी आंधी। कहानी सिर्फ यह थी कि एक पति पत्नी हैं, पत्नी के पिता राजनेता हैं और उसकी भी राजनीति में दिलचस्पी है। पत्नी चुनाव लड़ती है और बड़ी नेता बन जाती है, पति होटल का मैनेजर बन कर अपने आप में खुश हैं। दोनों अलग हो जाते हैं और बाद में पत्नी जब चुनाव लडऩे उसी इलाके में आती है और बिछड़े हुए पति के होटल में ठहरती है तो दोनों में फिर अंतरंगता हो जाती है। इस फिल्म को ले कर दो विवाद हुए थे। एक तो गुलजार ने कहानी और पटकथा का श्रेय कमलेश्वर को नहीं दिया था और दूसरे इंदिरा गांधी को बताया गया था कि आप पर यह फिल्म बनाई गई है। आपातकाल का जमाना था और जब सारे अखबार प्रतिबंधित हो सकते थे तो आंधी फिल्म को प्रतिबंधित करने में कितनी देर लगनी थी। गनीमत है कि संजय गांधी और उनकी मंडली के आसपास बनाई गई अमृत नाहटा की फिल्म किस्सा कुर्सी का की तरह फिल्म के प्रिंट जब्त कर के नहीं जला दिए गए। सोनिया गांधी बहुत अनमने भाव से राजनीति मेंं आई थी। उनकी राजीव गांधी के साथ प्रेम कथा, भारत आ कर लाल साड़ी पहन कर राजीव से शादी करना, राजनीति में आ कर हिंदी बोलना, कांग्रेस को दोबारा सत्ता में लाने की प्रेरणा बनना और मिला मिलाया प्रधानमंत्री पद ठुकरा देना ये सब चीजें सोनिया गांधी को रहस्यमय भी बनाती है और एक हद तक आदर का पात्र भी। अब स्पेनिश और इतालवी में प्रकाशित सोनिया गांधी के जीवन पर लिखी गई किताब लाल साड़ी को ले कर कांग्रेस में बवाल मचा हुआ है। जेवियर मोरो ने यह किताब लिखी है और इसका अंग्रेजी अनुवाद प्रकाशित करने के लिए दिल्ली की रोली बुक्स ने अनुबंध किया है। कांग्रेस के प्रवक्ता और सोनिया गांधी के वकील की भूमिका में अभिषेक मनु सिंघवी ने कई महीने पहले इस किताब के प्रकाशक को नोटिस भेज दिया था कि वे यह किताब बेचना बंद करे और भारत में प्रकाशन का किसी से अनुबंध नहीं करें। जेवियर मोरो ने एक ई मेल के जवाब में कहा है कि सरकार खुद भारत के प्रकाशकों पर दबाव डाल रही है कि वे यह पुस्तक नहीं छापे। इस किताब में जो अंश निकल कर आए हैं उनके अनुसार काफी विवादास्पद हिस्से हैं। इससे सोनिया गांधी के विदेशी मूल का मुद्दा फिर उभर सकता है। यह किताब इसलिए कमाल की है कि भारत आई नहीं मगर भारत में हंगामा पहले मच गया क्योंकि इस किताब के साथ सोनिया गांधी का नाम जुड़ा है। सोनिया के नाम पर कोई रिस्क नहीं :हाल ही में प्रकाश झा की फिल्म राजनीति पर भी कांग्रेस ने आपत्ति जताते हुए फिल्म के कुछ दृश्य हटवा दिए थे। कांग्रेस सूत्रों के मुताबिक फिल्म की नायिका का किरदार भी सोनिया गांधी से प्रेरित है। ऐसे में फिल्म के आपत्तिजनक दृश्य कांग्रेस अध्यक्ष की छवि के अनुकूल नहीं थे। इससे पहले भारतीय मूल के ब्रिटिश फिल्म निर्माता जगमोहन मुंदड़ा को भी सोनिया गांधी की जिंदगी पर फिल्म बनाने का इरादा छोडऩा पड़ा था, क्योंकि कांग्रेस सेंसर बोर्ड ने इसकी इजाजत नहीं दी। भले ही इसे सृजनात्मक आजादी के हनन का नाम दिया जाए या लोकतंत्र के खिलाफ करार दिया जाए, कांग्रेस सोनिया गांधी के नाम पर कोई रिस्क लेना नहीं चाहती। आखिरकार सोनिया ने ही कांग्रेस को नया जीवनदान दिया है। कांग्रेस नहीं चाहती कि सोनिया को लेकर कोई विवाद खड़ा हो या विरोधियों को विदेशी मूल का मुद्दा दोबारा उठाने का मौका मिले।:::::::::::::::::::::::::::::::::::: किस्सा कुर्सी का किस्साराजनीति पर आधारित फिल्म किस्सा कुर्सी का आपातकाल के दौर में खुद राजनीति का शिकार हुई। 1975 के दौरान बनी फिल्म किस्सा कुर्सी का, से जुड़ा विवाद अपने आप में खासा दिलचस्प है। शबाना आजमी की मुख्य भूमिका वाली यह फिल्म एक राजनीतिक व्यंग्य थी। कांग्रेस के सांसद रहे अमृत नाहटा फिल्म के निर्माता-निर्देशक थे। 1975 में जब यह फिल्म रिलीज होनी थी उससे पहले देश में आपातकाल लगाया जा चुका था। चूंकि फिल्म का मुख्य किरदार इंदिरा गांधी से मिलता-जुलता चरित्र था इसलिए सरकार के दबाव में सेंसर बोर्ड ने फिल्म के सार्वजनिक प्रदर्शन की अनुमति नहीं दी। सेंसर बोर्ड के इस निर्णय के खिलाफ नाहटा ने अदालत का दरवाजा खटखटाया। अदालत ने फैसला दिया कि सार्वजनिक प्रदर्शन के पहले ये फिल्म न्यायाधीशों को दिखाई जाएगी। इससे पहले कि अदालत के सामने फिल्म का प्रदर्शन होता, उसका मूल प्रिंट गायब हो गया। कहा जाता है कि संजय गांधी के इशारे पर तत्कालीन सूचना और प्रसारण मंत्री विद्याचरण शुक्ल ने मुंबई से फिल्म के प्रिंट जब्त करवाकर उन्हें दिल्ली के पास गुडग़ांव स्थित मारुति फैक्टरी परिसर में रखवा दिया जहां बाद में इन्हें नष्ट कर दिया गया। 1977 के चुनावों में अमृत नाहटा जनता पार्टी के टिकट पर चुनाव जीतकर सांसद बने। उन्होंने संसद में मांग की कि आपातकाल के दौरान जब्त की गई उनकी फिल्म के प्रिंट उन्हें वापस किए जाएं। तत्कालीन प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई और तब के सूचना और प्रसारण मंत्री लालकृष्ण आडवाणी ने यह केस सीबीआई को सौंपने का फैसला किया। सीबीआई के संयुक्त सचिव निर्मल कुमार सिंह ने इस मामले की जांच की और संजय गांधी और विद्याचरण शुक्ल के खिलाफ इस मामले में मुकदमा दर्ज कराया। केस की सुनवाई हुई और दिल्ली की एक सत्र अदालत ने दोनों आरोपियों पर जुर्माना लगाते हुए सजा सुनाई। गांधी और शुक्ल की तरफ से बाद में सुप्रीम कोर्ट में अपील दायर की गई। इस वक्त तक मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री पद छोड़ चुके थे। चौधरी चरणसिंह कांग्रेस के समर्थन से प्रधानमंत्री थे। बदली राजनीतिक परिस्थितियों में फिल्म को लेकर नाहटा अपने आरोपों से मुकर गए। अंतत: सुप्रीम कोर्ट ने सबूतों के अभाव में संजय गांधी और विद्याचरण शुक्ल को बरी कर दिया। किस्सा कुर्सी का मामला इस मायने में भी खास है कि देश में पहली बार अदालत द्वारा सजा सुनाए जाने के बाद भी आरोपियों को चुनाव लडऩे की अनुमति मिली और दोनों उम्मीदवार चुनाव जीते भी। 1977 में अमृत नाहटा ने फिर उसी कहानी पर किस्सा कुर्सी का फिल्म बनाई जो बॉक्स ऑफिस पर बुरी तरह असफल साबित हुई।———————
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