रविवार, 6 जून 2010
दंडकारण्य में बुद्ध की जरूरत
आज दंडकारण्य खूनी हो चुका है। गोलियों की आवाज से जंगली व हिंसक पशु भी घबरा उठे हैं। यहां एक अंगुलिमाल नहीं, हजारों हैं। जब अंगुलिमाल किसी व्यक्ति की हत्या करता था, तो उसकी अंगुली काटकर उसे अपनी माला में पिरो लेता था। इसी कारण उसका नाम अंगुलिमाल पड़ा था। उसके अत्याचारों के बारे में बुद्ध ने सुना। उन्होंने उस डाकू को एक साधु के रूप में बदलने का निश्चय कर लिया। एक दिन बुद्ध उसके क्षेत्र में घूमने निकले। अंगुलिमाल ने उन्हें आता हुआ देखा। श्रमण की हत्या के लिए वह अपनी तलवार लेकर दौड़ा। बुद्ध अपनी स्वाभाविक गति से चले जा रहे थे, अंगुलिमाल अपनी पूरी शक्ति से उनके पीछे दौड़ रहा था, लेकिन फिर भी बुद्ध को पकड़ नहीं पा रहा था। भगवान बुद्ध रुक गए और जब डाकू अंगुलिमाल का आमना-सामना हुआ तो शांत भाव से कहा, हे वत्स अंगुलिमाल! मैं तो रुका हुआ हूं, अब तू भी पाप-कर्म करने से रुक। मैं इसलिए आया हूं कि तू भी धर्म-पथ का अनुगामी बन जाए। अंगुलिमाल पर आकाशवाणी की भांति ओजपूर्ण, मधुर एवं सिहरन पैदा करने वाले बुद्ध के वचनामृत का प्रभाव पड़ा। वह बोला, श्रमण ने मुझे जीत लिया। मैं आपके धर्म को स्वीकार करने के लिए तैयार हूं। उसने अपने गले से अंगुलियों की माला उतारकर दूर फेंक दी और अपनी तलवार भगवान के चरणों में समर्पित कर धर्म-दीक्षा की याचना की। धर्म-दीक्षा के लिए आज भी दंडकारण्य तरस रहा है। शेष को बचाने के लिए परिवेश को बदलने की दरकार है।
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