रविवार, 6 जून 2010
व्यावसायिक होती संवेदनाएं
टीस उठती है। दर्द शरीर के किसी भाग में नासूर बन कर नहीं उभरा है। दिल बेचैन है, मन व्यथित है। राहत के नाम पर आहत करने की परंपरा गली-कूचों से लेकर अट्टालिकाओं तक आ पहुंची है। सांसत हर जगह घर गया है। व्यवस्था अव्यवस्था के रूप में परिणत होते जा रहा है। हैरतअंगेज रूप से नामचीन अर्वाचीन की ओर तो अनाम नई पहचान के रूप में अब इंगित किए जा रहे हैं। कभी खानाबदोश के रूप में पहचाने जाने वाले अब बाशिंदे तय कर दिए गए हैं। आज यही पहचान बनते जा रहे हैं-हमारी नई संस्कृति के लिए। अहम बात यह कि इनका हमारी संस्कृति से दूर-दूर तक कोई जुड़ाव नहीं होता। नतीजा, संवेदना शुद्ध रूप से व्यावसायिक हो गई है। पैसे के हिसाब से रोना, पैसे के हिसाब से हंसना, पैसे के हिसाब से ही सहयोग की भावना रखना। फिर उम्मीद ही बेमानी है। ऐसे चरित्र के बल पर अपनी पहचान तो कभी हो ही नहीं सकती। दु:ख इसका और ज्यादा है कि जड़ से जुड़े लोग इनकी वजह से हाशिए पर खदेड़ दिए गए हैं। परिणाम भी सामने ही है। जहां कोई टक्कर देने की सोच भी नहीं सकता था, धक्के मार कर जा रहा है। चोट अंतर्मन पर लगती है। सोचने की विवशता आ खड़ी होती है कि जिसके लिए सबको छोड़ा, क्या तू वही है। अगर वही सही है तो इतने दिनों से मैं ही गलत था। पराए कंधे पर सर रखकर नाहक ही इतने दिनों तक गलमतफहमी का शिकार बना रहा। इत्तेफाक से साफ दर्पण हाथ लगा है। कोई धुंंधलका नहीं, तस्वीर तकदीर को साथ लिए खड़ी है। मैं अपने को ही मुंह चिढ़ा रहा हूं। इतने दिनों तक खुद को ही नहीं पहचान सका। मैं कौन हूं-पता किसी और से पूछ रहा हूं। शायद कोई मिले और मेरी बातों पर मुहर लगा दे कि बेवकूफों की कोई पहचान नहीं होती। ढूंढने की जरूरत ही क्योंकर, अपना चेहरा क्या कम है।
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