रविवार, 6 जून 2010

दिल्ली दिल से सुने

विदर्भ की विधवाएं अब अपना दुखड़ा सुनाने दिल्ली जाएंगी। वे प्रधानमंत्री को बताने की कोशिश करेंगी कि कैसे प्रधानमंत्री राहत पैकेज के नाम पर जो कुछ विदर्भवासियों को दिया गया वह सब भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ गया। दरअसल राज्य की पब्लिक एकाउण्ट्स कमेटी ने नवंबर 2009 में सदन पटल पर जो रिपोर्ट रखी थी उसमें बताया था कि प्रधानमंत्री राहत पैकेज के नाम पर जो 3750 करोड़ रुपये आवंटित किये गये थे वे भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ चुके हैं। अब खबर है कि राज्य सरकार फिर 7650 करोड़ के सिचाईं पैकेज की मांग कर रही हैं। दरअसल दिल्ली दौरे का उद्देशय इसी पैकेज के बंदरबांट को रोकने की कवायद है, ताकि किसी और किसान की लाश उसके खेतों से न निकले। देखा जाए तो आए दिन यहां हो रही किसी एक किसान की मौत विदर्भ में खदबदा रही मौत की हांडी के एक चावल की तरह है। कहते हैं कि विदर्भ कृष्ण की पटरानी रुक्मिणी का मायका है और कालिदास के मेघदूत पर भरोसा करें तो यक्षों और गंधर्वों का निवास स्थान। लेकिन कभी धन-धान्य से भरपूर विदर्भ की हवा में श्मशान की गंध भरी हुई है। प्रेमचंद के किस्सों में आजादी के पहले के किसानों के मजदूर बनने का जो दर्द मिलता है, वो विदर्भ में छितराया पड़ा है। विदर्भ के किसानों से मिलें तो साफ हो जाएगा कि उनकी जिंदगी ही कर्ज है। हर अगली फसल के लिए कर्ज लेने को मजबूर। शादी-विवाह या त्योहारों के लिए भी वो कर्ज पर निर्भर हैं। और जब बैंक या साहूकार का दबाव बढ़ता है तो वे चुपचाप कीटनाशक पीकर जिल्लत की जिंदगी से विदा ले लेते हैं। दिलचस्प बात ये है कि सरकार बीच-बीच में कर्जमाफी की जो लोकलुभावन घोषणा करती है, उसका कोई खास लाभ किसानों को नहीं मिलता। कर्ज में डूबे किसानों का आत्मविश्वास टूट चुका है। दूसरी तरफ किसी भी राजनीतिक दल की चिंता में ये मसला नहीं रह गया है। विदर्भ जनांदोलन समिति जैसे कुछ संगठन जरूर ये मुद्दा उठाते रहते हैं लेकिन हाशिये का ये हस्तक्षेप बड़ा स्वरूप ग्रहण नहीं कर पा रहा है। कभी-कभी तो लगता है कि विदर्भ के किसान खुदकुशी नहीं कर रहे हैं, शहादत दे रहे हैं। वे जान देकर हमें चेताना चाहते हैं कि देश को खेती और किसानों के बारे में नए सिरे से सोचना होगा। वे विकास के मौजूदा मॉडल पर बलि होकर देश की नाभिस्थल कहे जाने वाले विदर्भ में जीवन जल के सूखने की मुनादी कर रहे हैं। लेकिन ये मुनादी मौजूदा राजनीतिक व्यवस्था सुनने को तैयार नहीं। विकास के सारे हो हल्ले के बीच किसानों का दर्द गायब है। राजनीति तेजी से परिवेश को आत्मसात करती जा रही है। जीने की बात कौन करे मरने की घटनाओं पर भी अपना ठप्पा चस्पा करने की जिद पार्टियों ने ठान ली है। विदीर्ण व्यवस्था को भली भांति समझने में माहिर शातिर लालफीताशाही चादर ताने सो रही है। तानों से इन्हें कोई परवाह नहीं। अगर होता तो विदर्भ के किसान विधवाओं की फरियाद दिल्ली पहुंचाने की तैयारी नहीं होती। विधवा शब्द अपने आप में संवेदना का हकदार है। सिफारिश यहां आकर गौण हो जाता है, लेकिन स्थितियां उलट हो गई हैं। झोलियां फैली हैं, मगर वर्षों से खाली है। कभी कोई दिवाली नहीं।

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