देश की मिट्टी में क्षारीय तत्व तेजी से बढ़ रहा है और बंजर जमीनों का दायरा भी बड़ा हो रहा है। परिणाम यह हो रहा है कि देश की 45 फीसदी जमीन अनुत्पादक और अनुपजाऊ हो गयी है। वनों का विनाश हो रहा है, खदान और पानी का अनियमित दोहन किया जा रहा है तथा गलत तरीके के खेती की पद्धतियों का इस्तेमाल किया जा रहा है उससे जमीन को सबसे अधिक नुकसान पहुंच रहा है। अगर थोड़ी सावधानी बरती जाए और कुछ प्रयास किया जाए तो खराब हो चुकी 14.7 करोड़ हेक्टेयर जमीन को दोबारा ठीक करके मिट्टी की गुणवत्ता को बढ़ाया जा सकता है।
एक सर्वे के अनुसार, देश के 11 करोड़ लोग धूल और धुएं के शिकार हैं तथा इन शहरों में प्रदूषण के कारण 15,000 करोड़ सालाना का जीडीपी में नुकसान हो रहा है। शहरों में प्रदूषण का सबसे बड़ा कारण तेजी से बढ़ रही गाडिय़ों की संख्या है, उन्होंने कहा कि अब वक्त आ गया है सार्वजनिक परिवहन को पूरी मजबूती के साथ चुस्त दुरुस्त किया जाए।
तेजी से बढ़ता शहरीकरण भी पर्यावरण के सामने गंभीर चुनौती पैदा कर रहा है जिस तरह से गावों को अनुत्पादक बनाया जा रहा है उसके कारण गांवों से तेजी से शहरों की तरफ पलायन हो रहा है। रिपोर्ट के अनुसार शहरों में रहनेवाली कुल आबादी का 20 से 40 प्रतिशत झुग्गियों में रह रहा है। शहरों में मूलभूत सुविधाएं बढ़ाने के नाम पर केन्द्र सरकार द्वारा जो पैसा खर्च किया जा रहा है उसका अधिकांश हिस्सा महानगरों में खर्च हो रहा है जबकि असल समस्या उन 4,000 छोटे शहरों में पैदा हो रही है जहां तेजी से पलायन करके लोग पहुंच रहे हैं। साफ है कि देश के विकास के माडल पर दोबारा सोचने की जरूरत है। लेकिन दिक्कत यह है कि सरकार विकास के नाम पर खुद देश के पर्यावरण और लोगों के जीवन पर संकट पैदा कर रही है। केवल रिपोर्ट जारी करते रहने से कुछ हासिल नहीं होगा, जरूरत इस बात की है कि सरकार पूरी औद्योगिक नीति में बदलाव लाये ताकि बदलते पर्यावरण में धरती और लोग दोनों को बचाया जा सके।
आजकल के उद्योगों से तरह-तरह के विषैले रासायनिक उत्सर्जन होते हैं जो कैंसर आदि भयंकर बीमारियाँ ला सकते हैं। विदेशों में उद्योगों के उत्सर्जन पर कड़ा नियंत्रण होने से बहुत-सी बहुराष्ट्रीय कंपनियां अपने पुराने और ज्यादा प्रदूषण फैलाने वाले कारखानों को भारत जैसे विकासशील देशों में ले आई हैं। इन विकासशील देशों में प्रदूषण नियंत्रण कानून उतने सख्त नहीं होते या उतनी सख्ती से लागू नहीं किए जाते। इन कारखानों में सुरक्षा की ओर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया जाता। इनमें कम उन्नत प्रौद्योगिकियों का इस्तेमाल किया जाता है जो सस्ते तो होते हैं, परंतु संसाधन बहुत खाते हैं और प्रदूषण भी बहुत करते हैं। इन कारखानों की मशीनरी पुरानी होने, सुरक्षा की ओर ध्यान न दिए जाने या लापरवाही के कारण कई बार भयंकर दुर्घटनाएँ होती हैं जिसके दौरान भारी परिमाण में विषैले पदार्थ हवा में घुल जाते हैं। इस तरह की घटनाओं का सबसे अधिक ज्वलंत उदाहरण भोपाल में यूनियन कार्बाइड के कीटनाशक कारखाने में हुआ विस्फोट है। इस दुर्घटना में एमआईसी नामक अत्यंत घातक गैस कारखाने से छूटी थी और हजारों लोगों को मौत की नींद सुला गई। इस तरह की अनेक दुर्घटनाएँ हमारे देश के औद्योगिक केंद्रों में आए दिन घटती रहती हैं। उनमें मरने वालों की संख्या भोपाल के स्तर तक नहीं पहुंची है लेकिन इससे वे कम घातक नहीं मानी जा सकतीं। मानव स्वास्थ्य को पहुंचे नुकसान के अलावा भी वायु प्रदूषण के अनेक अन्य नकारात्मक पहलू होते हैं। नाइट्रोजन के ऑक्साइड और सल्फर डाइऑक्साइड अम्ल वर्षा को जन्म देते हैं। अम्ल वर्षा मिट्टी, वन, झील-तालाब आदि के जीवतंत्र को नष्ट कर देती है और फसलों, कलाकृतियों (जैसे ताज महल), वनों, इमारतों, पुलों, मशीनों, वाहनों आदि पर बहुत बुरा असर छोड़ती है। वह रबड़ और नायलोन जैसे मजबूत पदार्थों को भी गला देती है। वायु प्रदूषण राष्ट्रीय सीमाओं को नहीं मानता और एक देश का प्रदूषण दूसरे देश में कहर ढाता है। जब रूस के चेरनोबिल शहर में परमाणु बिजलीघर फटा था, तब उससे निकले रेडियोधर्मी प्रदूषक हवा के साथ बहकर यूरोप के अनेक देशों में फैल गए थे। लंदन के कारखानों का जहरीला धुंआ ब्रिटिश चैनल पार करके यूरोपीय देशों में अपना घातक प्रभाव डालता है। अमेरिका का वायु प्रदूषण कनाडा में विध्वंस लाता है। इस तरह वायु प्रदूषण अंतर्राष्ट्रीय तकरारों को भी जन्म दे सकता है। भारत के दिल्ली, मुंबई, कलकत्ता आदि बड़े शहरों में वायु प्रदूषण गंभीर रूप ग्रहण करता जा रहा है। नागपुर के राष्ट्रीय पर्यावरणीय अभियांत्रिकी अनुसंधान संस्थान (नीरी) के अनुसार इन शहरों में सल्फर डाइऑक्साइड और निलंबित पदार्थों की मात्रा विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा निर्धारित अधिकतम सीमा से कहीं अधिक है। बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के अध्ययनों से भी स्पष्ट हुआ है कि वायु प्रदूषण फसलों को नुकसान पहुँचाकर उनकी उत्पादकता को कम करने लगा है। वायु प्रदूषण ओजोन परत को नष्ट करता है और हरितगृह प्रभाव को बढ़ावा देता है। इससे जो भूमंडलीय पर्यावरणीय समस्याएं सामने आती हैं, उनसे समस्त मानवजाति का अस्तित्व ही खतरे में पड़ सकता है। हरितगृह प्रभाव वायुमंडल में ऐसी गैसों के जमाव को कहते हैं जो सूर्य की गर्मी को पृथ्वी में आने तो देती हैं, परंतु पृथ्वी की गर्मी को अंतरिक्ष में निकलने नहीं देतीं। इससे पृथ्वी में सूर्य की गर्मी जमा होती जाती है और वायुमंडल गरम होने लगता है। वायु हमारी मूलभूत आवश्यकताओं में से एक है। उसे शुद्ध रखना हमारे कायमी अस्तित्व के लिए परम आवश्यक है।
एक सर्वे के अनुसार, देश के 11 करोड़ लोग धूल और धुएं के शिकार हैं तथा इन शहरों में प्रदूषण के कारण 15,000 करोड़ सालाना का जीडीपी में नुकसान हो रहा है। शहरों में प्रदूषण का सबसे बड़ा कारण तेजी से बढ़ रही गाडिय़ों की संख्या है, उन्होंने कहा कि अब वक्त आ गया है सार्वजनिक परिवहन को पूरी मजबूती के साथ चुस्त दुरुस्त किया जाए।
तेजी से बढ़ता शहरीकरण भी पर्यावरण के सामने गंभीर चुनौती पैदा कर रहा है जिस तरह से गावों को अनुत्पादक बनाया जा रहा है उसके कारण गांवों से तेजी से शहरों की तरफ पलायन हो रहा है। रिपोर्ट के अनुसार शहरों में रहनेवाली कुल आबादी का 20 से 40 प्रतिशत झुग्गियों में रह रहा है। शहरों में मूलभूत सुविधाएं बढ़ाने के नाम पर केन्द्र सरकार द्वारा जो पैसा खर्च किया जा रहा है उसका अधिकांश हिस्सा महानगरों में खर्च हो रहा है जबकि असल समस्या उन 4,000 छोटे शहरों में पैदा हो रही है जहां तेजी से पलायन करके लोग पहुंच रहे हैं। साफ है कि देश के विकास के माडल पर दोबारा सोचने की जरूरत है। लेकिन दिक्कत यह है कि सरकार विकास के नाम पर खुद देश के पर्यावरण और लोगों के जीवन पर संकट पैदा कर रही है। केवल रिपोर्ट जारी करते रहने से कुछ हासिल नहीं होगा, जरूरत इस बात की है कि सरकार पूरी औद्योगिक नीति में बदलाव लाये ताकि बदलते पर्यावरण में धरती और लोग दोनों को बचाया जा सके।
आजकल के उद्योगों से तरह-तरह के विषैले रासायनिक उत्सर्जन होते हैं जो कैंसर आदि भयंकर बीमारियाँ ला सकते हैं। विदेशों में उद्योगों के उत्सर्जन पर कड़ा नियंत्रण होने से बहुत-सी बहुराष्ट्रीय कंपनियां अपने पुराने और ज्यादा प्रदूषण फैलाने वाले कारखानों को भारत जैसे विकासशील देशों में ले आई हैं। इन विकासशील देशों में प्रदूषण नियंत्रण कानून उतने सख्त नहीं होते या उतनी सख्ती से लागू नहीं किए जाते। इन कारखानों में सुरक्षा की ओर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया जाता। इनमें कम उन्नत प्रौद्योगिकियों का इस्तेमाल किया जाता है जो सस्ते तो होते हैं, परंतु संसाधन बहुत खाते हैं और प्रदूषण भी बहुत करते हैं। इन कारखानों की मशीनरी पुरानी होने, सुरक्षा की ओर ध्यान न दिए जाने या लापरवाही के कारण कई बार भयंकर दुर्घटनाएँ होती हैं जिसके दौरान भारी परिमाण में विषैले पदार्थ हवा में घुल जाते हैं। इस तरह की घटनाओं का सबसे अधिक ज्वलंत उदाहरण भोपाल में यूनियन कार्बाइड के कीटनाशक कारखाने में हुआ विस्फोट है। इस दुर्घटना में एमआईसी नामक अत्यंत घातक गैस कारखाने से छूटी थी और हजारों लोगों को मौत की नींद सुला गई। इस तरह की अनेक दुर्घटनाएँ हमारे देश के औद्योगिक केंद्रों में आए दिन घटती रहती हैं। उनमें मरने वालों की संख्या भोपाल के स्तर तक नहीं पहुंची है लेकिन इससे वे कम घातक नहीं मानी जा सकतीं। मानव स्वास्थ्य को पहुंचे नुकसान के अलावा भी वायु प्रदूषण के अनेक अन्य नकारात्मक पहलू होते हैं। नाइट्रोजन के ऑक्साइड और सल्फर डाइऑक्साइड अम्ल वर्षा को जन्म देते हैं। अम्ल वर्षा मिट्टी, वन, झील-तालाब आदि के जीवतंत्र को नष्ट कर देती है और फसलों, कलाकृतियों (जैसे ताज महल), वनों, इमारतों, पुलों, मशीनों, वाहनों आदि पर बहुत बुरा असर छोड़ती है। वह रबड़ और नायलोन जैसे मजबूत पदार्थों को भी गला देती है। वायु प्रदूषण राष्ट्रीय सीमाओं को नहीं मानता और एक देश का प्रदूषण दूसरे देश में कहर ढाता है। जब रूस के चेरनोबिल शहर में परमाणु बिजलीघर फटा था, तब उससे निकले रेडियोधर्मी प्रदूषक हवा के साथ बहकर यूरोप के अनेक देशों में फैल गए थे। लंदन के कारखानों का जहरीला धुंआ ब्रिटिश चैनल पार करके यूरोपीय देशों में अपना घातक प्रभाव डालता है। अमेरिका का वायु प्रदूषण कनाडा में विध्वंस लाता है। इस तरह वायु प्रदूषण अंतर्राष्ट्रीय तकरारों को भी जन्म दे सकता है। भारत के दिल्ली, मुंबई, कलकत्ता आदि बड़े शहरों में वायु प्रदूषण गंभीर रूप ग्रहण करता जा रहा है। नागपुर के राष्ट्रीय पर्यावरणीय अभियांत्रिकी अनुसंधान संस्थान (नीरी) के अनुसार इन शहरों में सल्फर डाइऑक्साइड और निलंबित पदार्थों की मात्रा विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा निर्धारित अधिकतम सीमा से कहीं अधिक है। बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के अध्ययनों से भी स्पष्ट हुआ है कि वायु प्रदूषण फसलों को नुकसान पहुँचाकर उनकी उत्पादकता को कम करने लगा है। वायु प्रदूषण ओजोन परत को नष्ट करता है और हरितगृह प्रभाव को बढ़ावा देता है। इससे जो भूमंडलीय पर्यावरणीय समस्याएं सामने आती हैं, उनसे समस्त मानवजाति का अस्तित्व ही खतरे में पड़ सकता है। हरितगृह प्रभाव वायुमंडल में ऐसी गैसों के जमाव को कहते हैं जो सूर्य की गर्मी को पृथ्वी में आने तो देती हैं, परंतु पृथ्वी की गर्मी को अंतरिक्ष में निकलने नहीं देतीं। इससे पृथ्वी में सूर्य की गर्मी जमा होती जाती है और वायुमंडल गरम होने लगता है। वायु हमारी मूलभूत आवश्यकताओं में से एक है। उसे शुद्ध रखना हमारे कायमी अस्तित्व के लिए परम आवश्यक है।
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