बालगंगाधर तिलक ने एक बार कहा था कि 'तुम्हें कब क्या करना है यह बताना बुद्धि का काम है, पर कैसे करना है यह अनुभव ही बता सकता है। बुजुर्ग अनुभवों का वही खजाना है। जीवन पथ के कठिन मोड़ पर उसकी उपस्थिति ही उचित दिशा-निर्देश के लिए काफी है। मगर वक्त के बदलते मिजाज ने बुजुर्गों को परिवारों पर बोझ बना दिया है। कानूनी संरक्षण की आवश्यकता तक पडऩे लगी है। कहने को तो सब कुछ इनका ही है, मगर कोई अधिकार नहीं। जीवन संध्या में मुफलिसी व दर्द के सिवाय कुछ भी नहीं बचा है इनके पास। झुर्रीदार चेहरा, सफेद बाल, दोहरी कमर और चलने की ताकत खो चुके पैर। ये पूरा व्यक्तित्व उस मजलूमियत का है, जो उम्र के आखिरी पड़ाव पर एकदम अकेला पड़ गया है। जुबान पर एक ही गिला- लोगों के पास हमारे लिए अब वक्त नहीं है। किसी एक उम्रदराज की नहीं, उस पूरी पीढ़ी का दर्द है, जिनका अस्तित्व अपने ही घर में कोने में पड़े कबाड़ से ज्यादा नहीं रह गया है। मोहताज दिल से फिर भी दुआएं निकलती हैं- बेटा, आबाद रहो। मगर इतिहास स्वयं को दोहराता है। आज इनकी बारी, कल...।
उद्यानों में नया चलन
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शहर के उद्यानों में नया चलन देखने को मिल रहा है, जो विषाक्त है, विडंबनाओं से भरा हुआ है। बुजुर्ग सुबह और शाम घर से बाहर इसलिए घुमने के बहाने निकल जाते हैं, क्योंकि घर में बहुओं और बेटे-बेटियों की जली कटी सुननी पड़ती है। किसी मेहमान के आने पर बैठक कमरे से या तो भीतर जाने के लिए कह दिया जाता है या फिर बेईज्जती सा बर्ताव किया जाता है। फिर सुबह और शाम का समय बच्चों के स्कूल की व्यस्ततता और या फिर घर में खेलने का होता है। इस दौरान घर के परिवार को लोग बुजुर्गों पर झुंझलाहट निकालते हैं। रोजमर्रा के किटकिट से अजीज होकर बुजुर्ग बाहर ही रहना ज्यादा पसंद कर रहे हैं। पार्क, लाइब्रेरी आदि सार्वजनिक स्थलों में सुबह 6 से 10 और शाम 5 से 8 के दरम्यान ये बाहर ही रहते हैं। ये बुजुर्ग ऐसे समय घर लौटना पसंद करते हैं, जब या तो घर से लोग चले गए हों या सोने की तैयारी कर रहे हों। चुपचाप खाना खाकर वे किसी कोने में पड़ जाते हैं। ये शहर के उस बुजुर्ग वर्ग का तबका है, जो घर की बदनामी के चलते अपनी परेशानी को किसी से साझा भी नहीं कर सकते।
...आ गए बेटा
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नागपुर में हुड़केश्वर स्थित 'विजया संस्था में जीवन के अंतिम दिन गुजारते असहाय बुजुर्गों, विकलांगों और असक्षम लोगों की आंखों में झांकने के लिए खूब हिम्मत जुटानी पड़ती है। उनसे मिलने के लिए और उनका ध्यान आकृष्टï करने के लिए उनके अपने ही रिश्तेदार होने का छद्म रुप धारण करना पड़ता है। भले ही अपनों ने उन्हें यहां छोड़ दिया हो, लेकिन अपनों का नाम सुनकर बुझी आंखें रौनक से भर उठती हैं। 'विजया संस्था में एक मरीज पिछले साल भर से रह रही हैं। उनके आगे-पीछे कोई नहीं। संस्था ने पहचान उजागर न करने की शर्त पर बताया कि इनके पति का स्वर्गवास 5 साल पहले हो चुका है। घर की बिजली इसलिए काट दी गई, क्योंकि वे बिजली का बिल भरने कार्यालय नहीं जा सकती थीं। तकरीबन 4 साल वे बिना बिजली के ही रहीं। आज रोशनी देखकर वे चौंक उठती हैं। कोई मिलने आया है, कहने पर अचरज करती हैं। उनकी कोई संतान नहीं, रिश्तेदारों ने ही उन्हें यहां भर्ती किया है। वे मानसिक रोग की भी शिकार हैं। 3 बेटियों की मां पूर्वा गोरे (परिवर्तित नाम) 63 वर्ष की हैं। हंसमुख हैं, लेकिन डा. रामटेके ने बताया कि ये भी मानसिक रोगी हैं। बहुत ज्यादा याद नहीं रहता। पागलपन का दौरा पडऩे पर वे कपड़े फाडऩे लगती थीं और सड़क पर दौडऩे लगती थीं। उन्हें पलंग से ही बांध कर रखा जाता है। वहीं रितेश (परिवर्तित नाम) केवल 29 साल के हैं लेकिन बेहद कमजोर। पूछताछ में पता चला कि माता-पिता का देहांत हो गया है। बीते मार्च में मां का स्वर्गवास हो गया, जिसके बाद परिजनों ने यहां लाकर छोड़ दिया। परिजनों से मिलने की आस तो रहती है, लेकिन उनके बीच जाना नहीं चाहता। 'विजया संस्था के संचालक, संस्थापक डा. शशिकांत रामटेके बताते हैं कि यहां अब तक 185 लोगों को आश्रय दिया गया है। सभी मजहब और प्रांत के लोगों के लिए यहां के द्वार खुले हैं। यहां भर्ती होनेवालों की मृत्युपर्यंत सेवा की जाती है। सारी सुविधाएं, सेवाएं और अपनत्व दिया जाता है, जो घर से मिलने की उम्मीद रहती है। डा. रामटेके ने बताया कि ऐसे कई मरीजों की अंत्येष्टिï भी हमने की है, जिनके रिश्तेदार लेने तक नहीं आते। फोन पर संपर्क करने पर बाहर होने या व्यस्त होने की बात कहकर अंत्येष्टि डा. रामटेके को ही कर देने की सलाह देते हैं। बदलते मूल्यों को देख डा. रामटेके काफी दु:खी हैं। डा. शशिकांत रामटेके का कहना है कि यहां भर्ती मरीजों का अपना कोई नहीं। जिस वक्त उन्हें सबसे ज्यादा अपनों के बीच रहने की आवश्यकता होती है, वे उतना ही अपनों से दूर मौत के इंतजार में दिन काटते हैं। श्री रामटेके पत्नी, 7वीं कक्षा में पढऩेवाले 11 साल के बेटे, छोटे भाई और एक नौकरानी के परिवारनुमा स्टॉफ से मरीजों की सेवा करते हैं। डा. रामटेके ने वैसे अपने इस सेवाभाव के पीछे बालपन में घटी घटना को याद किया। बताया कि बीमार था, पड़ोसी ने डाक्टर से दिखाया और एक पैसे की दवा दिलाई। उस घटना के बाद लाचार, बेसहारा लोगों की सेवा में ही जीवन समर्पित करने का लक्ष्य रखा। उन्होंने बताया कि सारा दिन मरीजों की सेवा करते बीत जाता है। बुढ़ापा, मानसिक रोग और अस्वस्थ स्थिति के मरीजों की संपूर्ण साफ-सफाई, खाने-पीने, बर्तन-कपड़े धोने में काफी समय और मेहनत लगती है। हर मरीज को 2 से 15-20 हजार रुपए मासिक खर्च आता है। सरकार से कोई मदद नहीं मिली। बुजुर्गों के लिए 500 रुपए प्रतिमाह देेने की व्यवस्था तो है, लेकिन 'विजया परिवार में सभी उम्र के मरीजों के होने से उनकी स्वयंसेवी संस्था वृद्घाश्रम के तहत पंजीकृत नहीं हो सकी। यह संस्था पिछले 16 सालों से लगातार सेवारत है।
मजदूरी नहीं यह, जीवन की मजबूरी
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एक सामान्य विद्यार्थी की तरह सुबह- सुबह स्कूल जाना और वहां से लौटने के बाद शाम तक निर्माणाधीन इमारतों में मजदूरी करना, 18 वर्षीय अविनाश वडककर के जीवन का संघर्ष बयान करता है। वर्धा जिले के आजनसराय गांव में रहने वाले अविनाश के परिवार में उसकी मां और छोटा भाई है। पिता का देहांत करीब एक वर्ष पूर्व हो गया था। मां खेतों में मजदूरी और माली के रूप में काम कर परिवार का पालन पोषण करती थी। अकेले मां की कमाई से घर नहीं चल पाता था, इसलिए अविनाश भी मजदूरी करने लगा। अविनाश के सहपाठी और दोस्त राजेंद्र नखाते की कहानी भी अविनाश की तरह है। राजेंद्र के पिता किसान थे। कर्ज के बोझ से परेशान होकर उन्होंने करीब सात वर्ष पहले आत्महत्या कर ली थी। राजेंद्र की मां भी खेतों में मजदूरी करती है। राजेंद्र भी अविनाश की तरह स्कूल से लौटने के बाद मजदूरी करने जाता है। प्रतिकूल परिस्थितियों से लड़ते हुए काम और पढ़ाई दोनों एक साथ करने वाले इन विद्यार्थियों की जीवन में आगे बढऩे की इक्छा है। राजेंद्र इंजीनियर बनाना चाहता है और अविनाश को नौकरी चाहिए, जिसस वह परिवार का भरण-पोषण कर सके। कहना और लिखना तो आसान है कि पढ़ाई के साथ साथ अविनाश और राजेंद्र मजदूर के रूप में काम करते हैं, लेकिन शायद उनकी जिंदगी जीना आसान नहीं।
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'कृतज्ञता की कृतज्ञता
ऐसे ही विद्यार्थियों के संघर्षों को आसान बनाने और उनके सपनों को पूरा करने की कोशिश नागपुर में बूटीबोरी स्थित एक संस्था कर रही। 'रिसर्च एंड डेवलपमेंट एसोसिएशन ऑफ इंडिया नाम की यह संस्था आर्थिक रूप से असक्षम विद्यार्थियों के लिए 'कृतज्ञता नाम से छात्रावास चलाती है और उन्हे व्यावसायिक प्रशिक्षण भी देती है। 'कृतज्ञता में 1500 सौ रुपये मासिक खर्च आता है। इस राशि में रहना, खाना, किताबें सब मुहैया करायी जाती हैं। जिन विद्यार्थियों के पास यह राशि नहीं होती, उन्हें छात्रावास में नि:शुल्क ही रहने दिया जाता है। 'कृतज्ञता में विद्यार्थियों के लिए सत्तर दिन का नि:शुल्क व्यवसायिक प्रशिक्षण का कार्यक्रम चलाया जाता है। कार्यक्रम के दौरान ग्रामीण क्षेत्रों से आये अविनाश और राजेंद्र जैसे विद्यार्थियों को कंप्यूटर से लेकर सब सिखाया जाता है। सत्तर दिवसीय कार्यक्रम के दौरान व्यक्तित्व निखारने की कोशिश की जाती है। 'कृतज्ञता के जरिये इन विद्यार्थियों को नौकरी भी दिलाई जाती है। 5 सितम्बर 1999 में स्थापित इस संस्था का कार्यभार, वीएमवी कॉलेज में केमिस्ट्री विभाग के विभागाध्यक्ष के रूप में पदस्थ डॉ. डी.बी. बनकर के कन्धों पर है। इस कार्य में उनका हाथ बटाते हैं रविन्द्र सावजी, जो पूर्व में वित विभाग (महाराष्ट्र सरकार) में कोषाधिकारी थे। चंद्रपुर जिले के रहने वाले डॉ. बनकर का जीवन भी काफी संघर्षपूर्ण रहा है। वह बताते हैं कि वह खुद पढ़ाई और मजदूरी साथ-साथ करते थे और आज ऐसे ही विद्यार्थियों के लिए संस्था चलाते हैं। रविन्द्र सावजी ने बताया कि 'कृतज्ञता में महाराष्ट्र, झारखंड, बिहार, छत्तीसगढ़ आदि प्रदेशों से विद्यार्थी आते हैं। अब तक 'कृतज्ञता से पांच सौ विद्यार्थी निकल चुके हैं और देश विदेश में नौकरी कर रहे हैं। सावजी कहते हैं कि 'कृतज्ञता को चलाने में दो लाख रुपये महीने का खर्च आता है। इस खर्च को वहन करने के लिए देश भर से लोग दान देकर मदद करते हैं।
किसी ने ठीक ही कहा है-
'फल न देगा न सही, छांव तो देगा।
पेड़ बूढ़ा ही सही, आंगन में रहने दो।
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उद्यानों में नया चलन
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शहर के उद्यानों में नया चलन देखने को मिल रहा है, जो विषाक्त है, विडंबनाओं से भरा हुआ है। बुजुर्ग सुबह और शाम घर से बाहर इसलिए घुमने के बहाने निकल जाते हैं, क्योंकि घर में बहुओं और बेटे-बेटियों की जली कटी सुननी पड़ती है। किसी मेहमान के आने पर बैठक कमरे से या तो भीतर जाने के लिए कह दिया जाता है या फिर बेईज्जती सा बर्ताव किया जाता है। फिर सुबह और शाम का समय बच्चों के स्कूल की व्यस्ततता और या फिर घर में खेलने का होता है। इस दौरान घर के परिवार को लोग बुजुर्गों पर झुंझलाहट निकालते हैं। रोजमर्रा के किटकिट से अजीज होकर बुजुर्ग बाहर ही रहना ज्यादा पसंद कर रहे हैं। पार्क, लाइब्रेरी आदि सार्वजनिक स्थलों में सुबह 6 से 10 और शाम 5 से 8 के दरम्यान ये बाहर ही रहते हैं। ये बुजुर्ग ऐसे समय घर लौटना पसंद करते हैं, जब या तो घर से लोग चले गए हों या सोने की तैयारी कर रहे हों। चुपचाप खाना खाकर वे किसी कोने में पड़ जाते हैं। ये शहर के उस बुजुर्ग वर्ग का तबका है, जो घर की बदनामी के चलते अपनी परेशानी को किसी से साझा भी नहीं कर सकते।
...आ गए बेटा
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नागपुर में हुड़केश्वर स्थित 'विजया संस्था में जीवन के अंतिम दिन गुजारते असहाय बुजुर्गों, विकलांगों और असक्षम लोगों की आंखों में झांकने के लिए खूब हिम्मत जुटानी पड़ती है। उनसे मिलने के लिए और उनका ध्यान आकृष्टï करने के लिए उनके अपने ही रिश्तेदार होने का छद्म रुप धारण करना पड़ता है। भले ही अपनों ने उन्हें यहां छोड़ दिया हो, लेकिन अपनों का नाम सुनकर बुझी आंखें रौनक से भर उठती हैं। 'विजया संस्था में एक मरीज पिछले साल भर से रह रही हैं। उनके आगे-पीछे कोई नहीं। संस्था ने पहचान उजागर न करने की शर्त पर बताया कि इनके पति का स्वर्गवास 5 साल पहले हो चुका है। घर की बिजली इसलिए काट दी गई, क्योंकि वे बिजली का बिल भरने कार्यालय नहीं जा सकती थीं। तकरीबन 4 साल वे बिना बिजली के ही रहीं। आज रोशनी देखकर वे चौंक उठती हैं। कोई मिलने आया है, कहने पर अचरज करती हैं। उनकी कोई संतान नहीं, रिश्तेदारों ने ही उन्हें यहां भर्ती किया है। वे मानसिक रोग की भी शिकार हैं। 3 बेटियों की मां पूर्वा गोरे (परिवर्तित नाम) 63 वर्ष की हैं। हंसमुख हैं, लेकिन डा. रामटेके ने बताया कि ये भी मानसिक रोगी हैं। बहुत ज्यादा याद नहीं रहता। पागलपन का दौरा पडऩे पर वे कपड़े फाडऩे लगती थीं और सड़क पर दौडऩे लगती थीं। उन्हें पलंग से ही बांध कर रखा जाता है। वहीं रितेश (परिवर्तित नाम) केवल 29 साल के हैं लेकिन बेहद कमजोर। पूछताछ में पता चला कि माता-पिता का देहांत हो गया है। बीते मार्च में मां का स्वर्गवास हो गया, जिसके बाद परिजनों ने यहां लाकर छोड़ दिया। परिजनों से मिलने की आस तो रहती है, लेकिन उनके बीच जाना नहीं चाहता। 'विजया संस्था के संचालक, संस्थापक डा. शशिकांत रामटेके बताते हैं कि यहां अब तक 185 लोगों को आश्रय दिया गया है। सभी मजहब और प्रांत के लोगों के लिए यहां के द्वार खुले हैं। यहां भर्ती होनेवालों की मृत्युपर्यंत सेवा की जाती है। सारी सुविधाएं, सेवाएं और अपनत्व दिया जाता है, जो घर से मिलने की उम्मीद रहती है। डा. रामटेके ने बताया कि ऐसे कई मरीजों की अंत्येष्टिï भी हमने की है, जिनके रिश्तेदार लेने तक नहीं आते। फोन पर संपर्क करने पर बाहर होने या व्यस्त होने की बात कहकर अंत्येष्टि डा. रामटेके को ही कर देने की सलाह देते हैं। बदलते मूल्यों को देख डा. रामटेके काफी दु:खी हैं। डा. शशिकांत रामटेके का कहना है कि यहां भर्ती मरीजों का अपना कोई नहीं। जिस वक्त उन्हें सबसे ज्यादा अपनों के बीच रहने की आवश्यकता होती है, वे उतना ही अपनों से दूर मौत के इंतजार में दिन काटते हैं। श्री रामटेके पत्नी, 7वीं कक्षा में पढऩेवाले 11 साल के बेटे, छोटे भाई और एक नौकरानी के परिवारनुमा स्टॉफ से मरीजों की सेवा करते हैं। डा. रामटेके ने वैसे अपने इस सेवाभाव के पीछे बालपन में घटी घटना को याद किया। बताया कि बीमार था, पड़ोसी ने डाक्टर से दिखाया और एक पैसे की दवा दिलाई। उस घटना के बाद लाचार, बेसहारा लोगों की सेवा में ही जीवन समर्पित करने का लक्ष्य रखा। उन्होंने बताया कि सारा दिन मरीजों की सेवा करते बीत जाता है। बुढ़ापा, मानसिक रोग और अस्वस्थ स्थिति के मरीजों की संपूर्ण साफ-सफाई, खाने-पीने, बर्तन-कपड़े धोने में काफी समय और मेहनत लगती है। हर मरीज को 2 से 15-20 हजार रुपए मासिक खर्च आता है। सरकार से कोई मदद नहीं मिली। बुजुर्गों के लिए 500 रुपए प्रतिमाह देेने की व्यवस्था तो है, लेकिन 'विजया परिवार में सभी उम्र के मरीजों के होने से उनकी स्वयंसेवी संस्था वृद्घाश्रम के तहत पंजीकृत नहीं हो सकी। यह संस्था पिछले 16 सालों से लगातार सेवारत है।
मजदूरी नहीं यह, जीवन की मजबूरी
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एक सामान्य विद्यार्थी की तरह सुबह- सुबह स्कूल जाना और वहां से लौटने के बाद शाम तक निर्माणाधीन इमारतों में मजदूरी करना, 18 वर्षीय अविनाश वडककर के जीवन का संघर्ष बयान करता है। वर्धा जिले के आजनसराय गांव में रहने वाले अविनाश के परिवार में उसकी मां और छोटा भाई है। पिता का देहांत करीब एक वर्ष पूर्व हो गया था। मां खेतों में मजदूरी और माली के रूप में काम कर परिवार का पालन पोषण करती थी। अकेले मां की कमाई से घर नहीं चल पाता था, इसलिए अविनाश भी मजदूरी करने लगा। अविनाश के सहपाठी और दोस्त राजेंद्र नखाते की कहानी भी अविनाश की तरह है। राजेंद्र के पिता किसान थे। कर्ज के बोझ से परेशान होकर उन्होंने करीब सात वर्ष पहले आत्महत्या कर ली थी। राजेंद्र की मां भी खेतों में मजदूरी करती है। राजेंद्र भी अविनाश की तरह स्कूल से लौटने के बाद मजदूरी करने जाता है। प्रतिकूल परिस्थितियों से लड़ते हुए काम और पढ़ाई दोनों एक साथ करने वाले इन विद्यार्थियों की जीवन में आगे बढऩे की इक्छा है। राजेंद्र इंजीनियर बनाना चाहता है और अविनाश को नौकरी चाहिए, जिसस वह परिवार का भरण-पोषण कर सके। कहना और लिखना तो आसान है कि पढ़ाई के साथ साथ अविनाश और राजेंद्र मजदूर के रूप में काम करते हैं, लेकिन शायद उनकी जिंदगी जीना आसान नहीं।
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'कृतज्ञता की कृतज्ञता
ऐसे ही विद्यार्थियों के संघर्षों को आसान बनाने और उनके सपनों को पूरा करने की कोशिश नागपुर में बूटीबोरी स्थित एक संस्था कर रही। 'रिसर्च एंड डेवलपमेंट एसोसिएशन ऑफ इंडिया नाम की यह संस्था आर्थिक रूप से असक्षम विद्यार्थियों के लिए 'कृतज्ञता नाम से छात्रावास चलाती है और उन्हे व्यावसायिक प्रशिक्षण भी देती है। 'कृतज्ञता में 1500 सौ रुपये मासिक खर्च आता है। इस राशि में रहना, खाना, किताबें सब मुहैया करायी जाती हैं। जिन विद्यार्थियों के पास यह राशि नहीं होती, उन्हें छात्रावास में नि:शुल्क ही रहने दिया जाता है। 'कृतज्ञता में विद्यार्थियों के लिए सत्तर दिन का नि:शुल्क व्यवसायिक प्रशिक्षण का कार्यक्रम चलाया जाता है। कार्यक्रम के दौरान ग्रामीण क्षेत्रों से आये अविनाश और राजेंद्र जैसे विद्यार्थियों को कंप्यूटर से लेकर सब सिखाया जाता है। सत्तर दिवसीय कार्यक्रम के दौरान व्यक्तित्व निखारने की कोशिश की जाती है। 'कृतज्ञता के जरिये इन विद्यार्थियों को नौकरी भी दिलाई जाती है। 5 सितम्बर 1999 में स्थापित इस संस्था का कार्यभार, वीएमवी कॉलेज में केमिस्ट्री विभाग के विभागाध्यक्ष के रूप में पदस्थ डॉ. डी.बी. बनकर के कन्धों पर है। इस कार्य में उनका हाथ बटाते हैं रविन्द्र सावजी, जो पूर्व में वित विभाग (महाराष्ट्र सरकार) में कोषाधिकारी थे। चंद्रपुर जिले के रहने वाले डॉ. बनकर का जीवन भी काफी संघर्षपूर्ण रहा है। वह बताते हैं कि वह खुद पढ़ाई और मजदूरी साथ-साथ करते थे और आज ऐसे ही विद्यार्थियों के लिए संस्था चलाते हैं। रविन्द्र सावजी ने बताया कि 'कृतज्ञता में महाराष्ट्र, झारखंड, बिहार, छत्तीसगढ़ आदि प्रदेशों से विद्यार्थी आते हैं। अब तक 'कृतज्ञता से पांच सौ विद्यार्थी निकल चुके हैं और देश विदेश में नौकरी कर रहे हैं। सावजी कहते हैं कि 'कृतज्ञता को चलाने में दो लाख रुपये महीने का खर्च आता है। इस खर्च को वहन करने के लिए देश भर से लोग दान देकर मदद करते हैं।
किसी ने ठीक ही कहा है-
'फल न देगा न सही, छांव तो देगा।
पेड़ बूढ़ा ही सही, आंगन में रहने दो।
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