शनिवार, 17 अगस्त 2013

घर से शुरू हो आजादी

बस एक दिन शेष है। हमें स्वतंत्र हुए 66 साल हो जाएंगे। अनेक कार्यक्रमों का आयोजन होगा। भ्रष्टाचार, अराजकता, बेरोजगारी, भूखमरी आदि-आदि को लेकर नारे गुंजायमान होंगे। पर खेद की बात है कि इतने वर्ष व्यतीत हो जाने पर भी हम अपने सपने को साकार नहीं कर पाए हैं। वंदे मातरम् स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस के सही मायने शब्दों तक सीमित हैं। व्यथा शब्दों के पार है। मुक्कमल आजादी अभी नहीं मिली है। देहरी के भीतर आधी आबादी सिसक रही है तो बाहर निकलने के बावजूद युवा-धार कुंद है। असमंजस की दीवार को पार कर पाने की सामथ्र्य विरलों में है। युवा दिग्भ्रमित हैं। पश्चिमी चकाचौंध अपनी ही अस्मिता को पहचानने से इनकार कर रही है। शार्टकट पर भरोसा जायज नहीं। वह भी तब जब, देश आर्थिक, सांस्कृतिक और सामाजिक विरोधाभासों के बीच सांसे ले रहा हो। हमारा कर्तव्य है कि देश के उत्थान के लिए ईमानदारी का परिचय दें। नागरिक कर्मठता का पाठ सीखें और चरित्र-बल को ऊंचा बनाएं। फिरंगी मानसिकता से हम मुक्त नहीं हो सके हैं। स्वतंत्रता और समानता दूर-दूर तक दिखाई नहीं देती। आखिर यह कैसी आजादी है? क्या आम आदमी को भय और भूख से मुक्ति मिली है? क्या आम आदमी को उसके जीवन की गारंटी दी जा सकी है? क्या नारी की अस्मिता सुरक्षित है? क्या व्यक्ति अपनी बात निर्भीकता से रखने के लिए स्वतंत्र है?  विडंबना यह है कि हम आजादी के पर्व पर इन तथ्यों पर जरा भी चिंतन नहीं करते। यह ऐतिहासिक दिवस भारतीय आत्मा का सबसे बड़ा पर्व है। यह महान पर्व हमारे राष्ट्रीय जीवन के पुनर्जन्म की सूचना देता है। गुलामी सारी तकलीफों का सबब है। गंभीर चिंतन की आवश्यकता है।  स्वाधीनता बचानी है तो घर की देहरी से शुरुआत होनी चाहिए। इस बदले बयार की हलचल हर ओर हो। आइए, सत्य और ईमानदार संकल्प लें। हम राष्ट्र के ऋणी हैं और राष्ट्र आर्तनाद कर रहा है ठोस पहल के लिए।

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